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________________ प्रस्तावना xxix और सप्तति का कहने से क्रमश: दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठे प्रकरण का मतलब बहुत कम लोग समझेंगे; परन्तु दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा कर्मग्रन्थ कहने से लोग कहने वाले का भाव समझ लेंगे। विषय-इस ग्रन्थ का विषय कर्मतत्त्व है पर, इसमें कर्म से सम्बन्ध रखने वाली अनेक बातों पर विचार न करके प्रकृति-अंश पर ही प्रधानतया विचार केन्द्रित है, अर्थात् कर्म की सब प्रकृतियों का विपाक ही इसमें मुख्यतया वर्णन किया गया है। इसी अभिप्राय से इसका नाम भी ‘कर्मविपाक' रक्खा गया है। वर्णन क्रम-इस ग्रन्थ में सबसे पहले यह दिखाया है कि कर्मबन्ध स्वाभाविक नहीं, किन्तु सहेतुक है। इसके बाद कर्म का स्वरूप परिपूर्ण बताने के लिये उसे चार अंशों में विभाजित किया है-(१) प्रकृति, (२) स्थिति, (३) रस और (४) प्रदेश। इसके बाद आठ प्रकृतियों के नाम और उनके उत्तर भेदों की संख्या बताई गई है। अनन्तर ज्ञानावरणीयकर्म के स्वरूप को दृष्टान्त, कार्य और कारण द्वारा दिखलाने के लिए प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने ज्ञान का निरूपण किया है। ज्ञान के पाँच भेदों को और उनके अवान्तर भेदों को संक्षेप में, परन्तु तत्त्वरूप से दिखाया है। ज्ञान का निरूपण करके उसके आवरणभूत कर्म का दृष्टान्त द्वारा उद्घाटन (खुलासा) किया है। अनन्तर दर्शनावरण कर्म को दृष्टान्त द्वारा समझाया है। पीछे उसके भेदों को दिखलाते हुये दर्शन शब्द का अर्थ बतलाया है। दर्शनावरणीय कर्म के भेदों में पाँच प्रकार की निद्राओं का, सर्वानुभवसिद्ध स्वरूप, संक्षेप में, पर बड़ी मनोरंजकता से वर्णन किया है। इसके बाद क्रम से सुख-दुःखजनक वेदनीयकर्म, सद्विश्वास और सच्चारित्र के प्रतिबन्धक मोहनीयकर्म, अक्षय जीवन के विरोधी आयकर्म, गति, जाति आदि अनेक अवस्थाओं के जनक नामकर्म, उच्च-नीचगोत्रजनक गोत्रकर्म और लाभ आदि में रुकावट करने वाले अन्तराय कर्म का तथा उन प्रत्येक कर्म के भेदों का थोड़े में, किन्तु अनुभवसिद्ध वर्णन किया है। अन्त में प्रत्येक कर्म के कारण को दिखा कर ग्रन्थ समाप्त किया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ का प्रधान विषय कर्म का विपाक है, तथापि प्रसंगवश इसमें जो कुछ कहा गया है उन सबको संक्षेप में पाँच विभागों में बाँट सकते हैं (१) प्रत्येक कर्म के प्रकृति आदि चार अंशों का कथन, (२) कर्म की मूल तथा उत्तर प्रकृतियाँ, (३) पाँच प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का वर्णन, (४) सब प्रकृतियों का दृष्टान्तपूर्वक कार्य-कथन, (५) सब प्रकृतियों के कारण का कथन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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