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कर्मग्रन्थभाग-१
ग्रन्थ परिचय संसार में जितने प्रतिष्ठित सम्प्रदाय (धर्मसंस्थाएँ) हैं उन सबका साहित्य दो विभागों में विभाजित है—(१) तत्त्वज्ञान और (२) आचार व क्रिया।
ये दोनों विभाग एक-दूसरे से बिल्कुल ही अलग नहीं हैं। इनका सम्बन्ध वैसा ही है जैसा शरीर में नेत्र और हाथ, पैर आदि अन्य अवयवों का। जैन सम्प्रदाय का साहित्य भी तत्त्वज्ञान और आचार इन दो विभागों में बँटा हुआ है। यह ग्रन्थ पहले विभाग से सम्बन्ध रखता है, अर्थात् इसमें विधि-निषेधात्मक क्रिया का वर्णन नहीं है, किन्तु इसमें वर्णन है तत्त्व का। यों तो जैन दर्शन में अनेक तत्त्वों पर विशिष्ट दृष्टि से विचार किया है पर, इस ग्रन्थ में उन सबका वर्णन नहीं है। इसमें प्रधानतया कर्मतत्त्व का वर्णन है। आत्मवादी सभी दर्शन किसी न किसी रूप में कर्म को मानते ही हैं, पर जैनदर्शन इस सम्बन्ध में अपनी असाधारण विशेषता रखता है अथवा यों कहिये कि कर्मतत्त्व के विचार प्रदेश में जैनदर्शन अपना सानी नहीं रखता, इसलिये इस ग्रन्थ को जैनदर्शन की विशेषता का या जैनदर्शन के विचारणीय तत्त्व का ग्रन्थ कहना उचित है।
विशेष परिचय इस ग्रन्थ का अधिक परिचय करने के लिए इसके नाम, विषय, वर्णनक्रम, रचना का मूलाधार, परिणाम, भाषा, कर्ता आदि अनेक बातों की ओर ध्यान देना जरूरी है।
नाम-इस ग्रन्थ के 'कर्मविपाक' और 'प्रथम कर्मग्रन्थ' इन दो नामों में से पहला नाम तो विषयानुरूप है तथा उसका उल्लेख स्वयं ग्रन्थकार ने आदि में ' कम्मविवागं समासओ वुच्छं' तथा अन्त में 'इअ कम्मविवागोऽयं' इस कथन से स्पष्ट ही कर दिया है। परन्तु दूसरे नाम का उल्लेख कहीं भी नहीं किया है। वह नाम केवल इसलिए प्रचलित हो गया है कि कर्मस्तव आदि अन्य कर्मविषयक ग्रन्थों से यह पहला है; इसके बिना पढ़े कर्मस्तव आदि अगले प्रकरणों में प्रवेश ही नहीं हो सकता। पिछला नाम इतना प्रसिद्ध है कि पढ़नेपढ़ाने वाले तथा अन्य लोग प्राय: उसी नाम से व्यवहार करते हैं। पहला कर्मग्रन्थ, इस प्रचलित नाम से मूल नाम यहाँ तक अप्रसिद्ध-सा हो गया है कि कर्मविपाक कहने से बहुत लोग कहने वाले का आशय ही नहीं समझते। यह बात इस प्रकरण के विषय में ही नहीं, बल्कि कर्मस्तव आदि अग्रिम प्रकरणों के विषय में भी बराबर लागू पड़ती है। अर्थात् कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीतिक, शतक
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