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________________ प्रस्तावना xvii असम्भव है। इसलिए कर्म के प्रवाह को अनादि कहे बिना दुसरी गति ही नहीं है। कुछ लोग अनादित्व की अस्पष्ट व्याख्या की उलझन से घबड़ाकर कर्म प्रवाह को सादी बतलाने लग जाते हैं, पर वे अपनी बुद्धि की अस्थिरता से कल्पित दोष की आशंका करके, उसे दूर करने के प्रयत्न में एक बड़े दोष को स्वीकार कर लेते हैं। वह यह कि कर्म-प्रवाह यदि आदिमान है तो जीव पहले ही अत्यन्त शुद्ध-बुद्ध होना चाहिये, फिर उसके लिप्त होने का क्या कारण? और यदि सर्वथा शुद्ध-बुद्ध जीव भी लिप्त हो जाता है तो मुक्त हुये जीव भी कर्म-लिप्त होंगे; ऐसी दशा में मुक्ति को सोया हुआ संसार ही कहना चाहिये। कर्म प्रवाह के अनादित्व को और मुक्त जीव के फिर से संसार में न लौटने को सब प्रतिष्ठित दर्शन मानते हैं; जैसे न कर्माऽविभागादिति चेन्नाऽनादित्वात् ।। ३५।। उपपद्यते चाप्युपलभ्यते च ।। ३६।। -ब्रह्मसूत्र अ. २ पा. १ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ।। २२।। -ब्र.स.अ. ४ पा. ४ ७. कर्मबन्ध का कारण जैन दर्शन में कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कारण बतलाये गये हैं। इनका संक्षेप पिछले दो (कषाय और योग) कारणों में किया हुआ भी मिलता है। अधिक संक्षेप करके कहा जाय तो यह कह सकते हैं कि कषाय ही कर्मबन्ध का कारण है। यों तो कषाय के विकार के अनेक प्रकार हैं पर, उन सबका संक्षेप में वर्गीकरण करके आध्यात्मिक विद्वानों ने उसके राग, द्वेष दो ही प्रकार किये हैं। कोई भी मानसिक विकार हो, या तो वह राग (आसक्ति) रूप या द्वेष (ताप) रूप है। यह भी अनुभव सिद्ध है कि साधारण प्राणियों की प्रवृत्ति, चाहे वह ऊपर से कैसी ही क्यों न दीख पड़े, पर वह या तो रागमूलक या द्वेषमूलक होती है। ऐसी प्रवृत्ति ही विविध वासनाओं का कारण होती है। प्राणी जान सके या नहीं, पर उसकी वासनात्मक सूक्ष्म सृष्टि का कारण, उसके राग और द्वेष ही होते हैं। मकड़ी अपनी ही प्रवृत्ति से अपने किये हुये जाल में फँसती है। जीव भी कर्म के जाले को अपनी ही बे-समझी से रच लेता है। अज्ञान, मिथ्या-ज्ञान आदि जो कर्म के कारण कहे जाते हैं सो भी राग-द्वेष के सम्बन्ध ही से। राग की या द्वेष की मात्रा बढ़ी कि ज्ञान विपरीत रूप में बदलने लगा। इस प्रकार का शब्द-भेद होने पर भी कर्मबन्ध के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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