SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग-३ लेश्या मानी जाती है परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में ऐसा नहीं है। उसमें सनत्कुमार, माहेन्द्र दो देवलोकों में तेजो लेश्या, पद्म लेश्या- ब्रह्मलोक, ब्रह्मोत्तर, लोतक, कापिष्ठ इन चार देवलोकों में पद्म लेश्या शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार चार देवलोकों में पद्मलेश्या तथा शुक्ल लेश्या और आनत आदि शेष सब देवलोकों में केवल शुक्ललेश्या मानी जाती है। कर्मग्रन्थ में तथा गोम्मटसार में शुक्ललेश्या का बंध-स्वामित्व समान ही है। गा. २२ की टिप्पणी पृ. ६७-७०। (८) तीसरे कर्मग्रन्थ में कृष्ण आदि तीन लेश्याएँ पहले चार गुणस्थानों में मानी हैं, गोम्मटसार और सर्वार्थसिद्धि का भी यही मत है। गा. २४ की टिप्पणी पृ. ७५। गतित्रस-श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में तेज:कायिक, वायुकायिक जीव, स्थावर नामकर्म के उदय के कारण स्थावर माने गये हैं, तथापि श्वेताम्बर साहित्य में अपेक्षा विशेष से उनको त्रस भी कहा हैयह विचार जीवाभिगम में भी है। यद्यपि तत्त्वार्थभाष्यटीका आदि में तेज:कायिक वायुकायिक को 'गतित्रस' और आचारांगनियुक्ति तथा उसकी टीका में 'लब्धित्रस' कहा है तथापि गतित्रस लब्धित्रस इन दोनों शब्दों के तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है। दोनों का मतलब यह है कि तेज:कायिक वायकायिक में द्वीन्द्रिय आदि की तरह त्रसनामकर्मोदय रूप त्रसत्व नहीं है, केवल गमनक्रिया रूप शक्ति होने से त्रसत्व माना जाता है; द्वीन्द्रिय आदि में तो बसनामकर्मोदय और गमनक्रिया उभय-रूप त्रसत्व है। दिगम्बर साहित्य में सब जगह तेज:कायिक वायुकायिक को स्थावर ही कहा है, कहीं भी अपेक्षा विशेष से उनको त्रस नहीं कहा है। 'पृथिव्यप्तेजो १. औदारिक-मिश्र-काययोग के बन्ध में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु की गणना इस कर्मग्रन्थ की गा. १४वीं में की है। उक्त आयुओं का बन्ध मानने न मानने के विषय में टब्बाकारों ने शंका समाधान किया है, जिसका विचार टिप्पणी पृ. ३७-३९ पर किया है। पंचसंग्रह इस विषय में कर्मग्रन्थ के समान उक्त दो आयुओं का बन्ध मानता है'वेउब्बिज्जुगे न आहारं।' 'बंधइ न उरलमीसे, नरयतिगं छ?ममराउं।।' (४-१५५) टीका—'यत्तु तिर्यगायुर्मनुष्यायुस्तदल्पाध्यवसाययोग्यमिति तस्या मप्यवस्थायां तयोर्बन्धसंभव:।' (श्रीमलयगिरि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy