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________________ परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग - ३ २६१ कायानुवादेन पृथिवीकायादिषु वनस्पतिकायान्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् तत्त्वार्थ अ. १ सू. ८ की सर्वार्थसिद्धि) सर्वार्थसिद्धि का यह मत गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ६७७ में निर्दिष्ट है। एकेन्द्रियों में गुणस्थान मानने के सम्बन्ध में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दो पक्ष चले आते हैं। सैद्धान्तिक पक्ष सिर्फ पहला गुणस्थान (चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ४८) और कार्मग्रन्थिक पक्ष पहला दूसरा दो गुणस्थान मानता है ( पञ्चसंग्रह द्वा. १- २८)। दिगम्बर सम्प्रदाय में यही दो पक्ष देखने में आते हैं। सर्वार्थसिद्धि और जीवकाण्ड में सैद्धान्तिक पक्ष तथा कर्मकाण्ड में कार्मग्रन्थिक पक्ष है। (३) औदारिक मिश्र काययोग मार्गणा में मिथ्यात्व गुणस्थान में १०९ प्रकृतियों का बन्ध जैसा कर्मग्रन्थ में है वैसा ही गोम्मटसार में। गा. १४ की टिप्पणी पृ. ३७-३९। (४) औदारिक मिश्र काययोग मार्गणा में सम्यक्त्वी को ७५ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होना चाहिये किन्तु टब्बाकार के अनुसार ७० प्रकृतियों का मन्तव्य है । गोम्मटसार को यही मन्तव्य अभिमत है । गा. १५ की टिप्पणी पृ. ४०-४२। (४) आहारक मिश्र काययोग में ६३ प्रकृतियों का बन्ध कर्मग्रन्थ में माना हुआ है, परन्तु गोम्मटसार में ६२ प्रकृतियों का । गा. १५ की टिप्पणी पृ. ४५। (६) कृष्ण आदि तीन लेश्या वाले सम्यक्त्वियों को सैद्धान्तिक दृष्टि से ७५ प्रकृतियों का बन्ध माना जाना चाहिये, जो कर्मग्रन्थ में ७७ का माना है । गोम्मटसार भी उक्त विषय में कर्मग्रन्थ के समान ही ७७ प्रकृतियों का बन्ध मानता है। गा. २१ की टिप्पणी पृ. ६२-६५। (७) श्वेताम्बर सम्प्रदाय में देवलोक १२ माने हैं। (तत्त्वार्थ अ. ४ सू. २० का भाष्य), परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में १६ । (तत्त्वार्थ अ. ४ सू. १८ की सर्वार्थसिद्धि)। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार सनत्कुमार से सहस्रार पर्यन्त छः देवलोक हैं, पर दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार १० । इनमें ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र, शतार ये चार देवलोक हैं, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नहीं माने जाते। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तीसरे सनत्कुमार से लेकर पाँचवें ब्रह्मलोक पर्यन्त केवल पद्मलेश्या और छठे लोतक से लेकर ऊपर के सब देवलोकों में शुक्ल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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