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________________ २०४ परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग - १ तीन पुंजों को समझाने के लिये चक्की से पीसे हुए कोदों का दृष्टान्त दिया गया है। उसमें चक्की से पीसे हुए कोदों के भूसे के साथ अशुद्ध पुंजों की, तंदुले के साथ शुद्ध पुंजों की और कण के साथ अर्धविशुद्ध पुंज की बराबरी की गई है। प्राथमिक उपशमसम्यक्त्व-परिणाम (ग्रन्थिभेद - जन्य सम्यक्त्व) जिससे मोहनीय के दलिक शुद्ध होते हैं उसे चक्की - स्थानीय माना है - ( देखो, कर्मकाण्ड गा. २६) कषाय के ४ विभाग किये हैं, वह उसके रस की ( शक्ति की ) तीव्रतामन्दता के आधार पर। सबसे अधिक रसवाले कषाय को अनन्तानुबन्धी, उससे कुछ कम - रसवाले कषाय को अप्रत्याख्यानावरण, उससे भी मन्दरसवाले कषाय को प्रत्याख्यानावरण और सबसे मन्दरस वाले कषाय को संज्वलन कहते हैं। इस ग्रन्थ की गाथा १८वीं में उक्त ४ कषायों का जो काल मान कहा गया है वह उनकी वासना का समझना चाहिये। वासना, असर (संस्कार) को कहते हैं। जीवन पर्यन्त स्थिति वाले अनन्तानुबन्धी का मतलब यह है कि वह कषाय इतना तीव्र होता है कि जिसका असर जिन्दगी तक बना रहता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय का असर वर्ष - पर्यन्त माना गया है। इस प्रकार अन्य कषायों की स्थिति के प्रमाण को भी उनके असर की स्थिति का प्रमाण समझना चाहिये। यद्यपि गोम्मटसार में बतलाई हुई स्थिति, कर्मग्रन्थवर्णित स्थिति से कुछ भिन्न है तथापि उसमें (कर्मकाण्ड - गाथा ४६ में) कषाय के स्थिति काल को वासनाकाल स्पष्टरूप से कहा है । यह ठीक भी जान पड़ता है। क्योंकि एक बार कषाय हुआ कि पीछे उसका असर थोड़ा बहुत रहता ही है। इसलिए उस असर की स्थिति ही को कषाय की स्थिति कहने में कोई विरोध नहीं है। कर्मग्रन्थ में और गोम्मटसार में कषायों को जिन-जिन पदार्थों की उपमा दी है वे सब एक ही हैं। भेद केवल इतना ही है कि प्रत्याख्यानावरण लोभ को गोम्मटसार में शरीर के मल की उपमा दी है और कर्मग्रन्थ में खंजन (कज्जल) की उपमा दी है— (देखो, जीवकाण्ड, गाथा २८६ ) | पृष्ठ ५७ में अपवर्त्य आयु का स्वरूप दिखाया है इसके वर्णन में जिस मरण को 'अकालमरण' कहा है उसे गोम्मटसार में 'कदलीघातमरण' कहा है। यह कदलीघात, शब्द अकालमृत्यु अर्थ में अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता । (कर्मकाण्ड, गाथा ५७) संहनन शब्द का अस्थिनिचय ( हड्डियों की रचना ) यह अर्थ जो किया गया है सो कर्मग्रन्थ के मतानुसार । सिद्धान्त के मतानुसार संहनन का अर्थ शक्तिविशेष है; यथा Jain Education International ――― For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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