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________________ कर्मग्रन्थभाग-३ १९५ होता है। इस तरह चौदहवें गुणस्थान में भी योग का निरोध-अभाव हो जाने से किसी तरह का आहार सम्भव नहीं है। परन्तु चौदहवें गुणस्थान में तो बन्ध का सर्वथा अभाव ही है इसलिये शेष चार गणस्थानों में अनाहारक के बन्धस्वामित्व का सम्भव है, जो कार्मणकाययोग के बन्ध-स्वामित्व के समान ही है। अर्थात् अनाहारक का बन्ध-स्वामित्व सामान्यरूप से ११२ प्रकृतियों का, पहले गुणस्थान में १०७ का; दूसरे में ९४ का, चौथे में ७५ का और तेरहवें में एक प्रकृति का है।।२३।। लेश्याओं में गुणस्थान का कथन। तिसु दुसु सुक्काइ गुणा, चउ सग तेरत्ति बन्धसामित्तं देविदसूरिलिहियं, नेयं कम्मत्थयं सोउ।। २४।। तिसृषु द्वयोः शुक्लायां गुणाश्चत्वारः सप्त त्रयोदशेति बन्धस्वामित्वम्। देवेन्द्रसूरिलिखितं ज्ञेयंम कर्मस्तवं श्रुत्वा।। २४।।। अर्थ-पहली तीन लेश्याओं में चार गुणस्थान हैं। तेज और पद्म दो लेश्याओं में पहले सात गणस्थान हैं। शक्ल लेश्या में पहले तेरह गणस्थान हैं। इस प्रकार यह 'बन्ध-स्वामित्व' नामक प्रकरण-जिसको श्री देवेन्द्रसूरि ने रचा है-उसका ज्ञान 'कर्मस्तव' नामक दूसरे कर्मग्रन्थ को जानकर करना चाहिये।।२४॥ भावार्थ---कृष्ण आदि पहली तीन लेश्याओं को ४ गुणस्थानों में ही मानने का आशय यह है कि ये लेश्याएँ अशुभ परिणामरूप होने से आगे के अन्य गुणस्थानों में नहीं पाई जा सकती। पिछली तीन लेश्याओं में से तेज और पद्म ये दो शुभ हैं सही, पर उनकी शुभता शुक्ल लेश्या से बहुत कम होती है। इससे वे दो लेश्याएँ सातवें गुणस्थान तक ही पायी जाती हैं। शुक्ल लेश्या का स्वरूप इतना शुभ हो सकता है कि वह तेरहवें गुणस्थान तक पायी जाती है। इस प्रकरण का ‘बन्ध-स्वामित्व' नाम इसलिये रक्खा गया है कि इसमें मार्गणाओं के द्वारा जीवों की प्रकृति-बंध-सम्बन्धिनी योग्यता का-बंध-स्वामित्व का विचार किया गया है। इस प्रकरण में जैसे मार्गणाओं को लेकर जीवों के बंध-स्वामित्व का सामान्यरूप से विचार किया है, वैसे ही गुणस्थानों को लेकर विशेष रूप से भी उसका विचार किया गया है, इसलिये इस प्रकरण के जिज्ञासुओं को चाहिये कि वे इसको असंदिग्धरूप से जानने के लिये दूसरे कर्मग्रन्थ का ज्ञान पहले सम्पादन कर लेवें, क्योंकि दूसरे कर्मग्रन्थ के बंधाधिकार में गुणस्थानों को लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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