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________________ कर्मग्रन्थभाग-३ १९३ गुणस्थान में जिननामकर्म और अहारक-द्विक के अतिरिक्त में १०१ का और दूसरे गुणस्थान में नपुंसक वेद, हुण्ड संस्थान मिथ्यात्व, सेवार्तसंहनन-इन ४ को छोड़ १०१ में से शेष ९७ प्रकृतियों का है। तीसरे से लेकर तेरहवें तक प्रत्येक गुणस्थान में वह बन्धधिकार के समान है।।२२।। 'भव्य, अभव्य, संज्ञी, असंगी और अनाहारक मार्गणा का बन्धस्वामित्व।' सव्वगुण भव्वसन्निसु, ओहु अभव्वाअसंनिमिच्छसमा सासणि असंनि सन्निव्व, कम्मणभंगो अणाहारे।।२३।। सर्वगुण भव्यसजिष्वोघोऽ भव्या असज्ञिनो मिथ्यासमाः। सासादनेऽसंज्ञी संज्ञिवत्कार्मणभंगोऽनाहारे।।२३।। के अनुसार छठे आदि तीन देवलोकों में पद्म, शुक्ल दो लेश्याएँ और नौवें आदि देवलोकों में केवल शुक्ल लेश्या मान लेने से उक्त विरोध हट जाता है। अब यह प्रश्न होता है कि तत्त्वार्थ-भाष्य और संग्रहणी-सूत्र-जिसमें छठे, सातवें और आठवें देवलोक में भी केवल शुक्ल लेश्या का ही उल्लेख है उसकी क्या गति है? इसका समाधान यह करना चाहिये कि तत्त्वार्थ-भाष्य और संग्रहणी-सूत्र में जो कथन है वह बहुलता की अपेक्षा से अर्थात् छठे आदि तीन देवलोकों में शुक्ल लेश्या वालों की ही बहलता है, इसलिये उनमें पद्मलेश्या की सम्भावना होने पर भी उसका कथन नहीं किया गया है। लोक में भी अनेक व्यवहार प्रधानता से होते हैं। अन्य जातियों के होते हुए भी जब ब्राह्मणों की बहुतायत होती है तब यही कहा जाता है कि यह ब्राह्मणों का ग्राम है। उक्त समाधान का आश्रय लेने में श्री जयसोमसरि का कथन सहायक है। इस प्रकार दिगम्बरीय ग्रन्थ भी उस सम्बन्ध में मार्गदर्शक हैं। इसलिये उक्त तत्त्वार्थ-भाष्य और संग्रहणी-सूत्र की व्याख्या को उदार बनाकर उक्त विरोध का परिहार कर लेना असंगत नहीं जान पड़ता। टिप्पण में उल्लिखित ग्रन्थों के पाठ क्रमश: नीचे दिये जाते हैं'शेषेषु लान्तकादिष्वासर्वार्थसिध्धा च्छुक्ललेश्या:'। (तत्त्वार्थ भाष्य) 'कष्पतिय पम्ह लेसा, लन्ताइसु सुक्कलेस हुन्ति सुरा' (संग्रहणी गा. १७५) 'कप्पित्थीसु ण तित्थं, सदरसहस्सारगोत्ति तिरियदुगं। तिरियाऊ उज्जोवो, अस्थि तदो णत्थि सदरचऊ।।' (कर्मकाण्ड गा. ११२) 'सुक्के सदरचउक्कं वाम तिमबारसं च ण व अत्यि' (कर्मकाण्ड गा. १२१) 'ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठेषु पालेश्या। शुक्र महाशुक्रशतारसहस्रारेषु पाशुक्ललेश्याः।' (सर्वार्थसिद्धि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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