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________________ १९२ कर्मग्रन्थभाग-३ का, पहले गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म तथा आहारक-द्विक के घटाने से १०५ का और दूसरे से सातवें तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान समझना। शुक्ललेश्या- यह लेश्या, पहले १३ गुणस्थानों में पायी जाती है। इसमें पद्मलेश्या से विशेषता यह है कि पद्मलेश्या की अबन्ध्य-~~नहीं बाँधने योग्यप्रकृतियों के अलावा और भी ४ प्रकृतियाँ (उद्योत-चतुष्क) इसमें बाँधी नहीं जाती। इसका कारण यह है कि पद्मलेश्या वाले, तिर्यश्च में-जहाँ कि उद्योत-चतुष्क का उदय होता है-जन्म ग्रहण करते हैं, पर शुक्ललेश्या वाले, उसमें जन्म नहीं लेते। अतएव कुल १६ प्रकृतियाँ सामान्य बन्ध में गिनी नहीं जाती। इस से शुक्ल लेश्या का बन्ध-स्वामित्त्व सामान्यरूप से १०४ प्रकृतियों का, मिथ्यात्व * इस पर एक शंका होती है, जो इस प्रकार ग्यारहवीं गाथा में तीसरे से आठवें देवलोक तक का बन्ध-स्वामित्व कहा है; इसमें छठे, सातवें और आठवें देवलोकों का-जिनमें तत्त्वार्थ अध्याय ४ सूत्र २३ के भाष्य तथा संग्रहणी-गाथा १७५ के अनुसार शुक्ल लेश्या ही मानी जाती है-बन्ध-स्वामित्व भी आ जाता है। ग्यारवी गाथा में कहे हुये छठे आदि तीन देवलोंकों के बन्धस्वामित्व के अनुसार, शुक्ललेश्या वाले भी उद्योत-चतुष्क को बाँध सकते हैं, पर इस बाईसवीं गाथा में शुक्ल लेश्या का जो सामान्य बन्ध-स्वामित्व कहा गया है उसमें उद्योतचतुष्क को नहीं गिना है, इसलिये यह पूर्वापर विरोध है। श्री जीवविजयजी और श्री जयसोमसूरि ने भी अपने-अपने टब्बे में उक्त विरोध को दर्शाया है। दिगम्बरीय कर्मशास्त्र में भी इस कर्मग्रन्थ के समान ही वर्णन है। गोम्मटसार (कर्मकाण्ड-गा. ११२) में सहस्रार देवलोक तक का जो बन्ध-स्वामित्व कहा गया है उसमें इस कर्मग्रन्थ की ग्यारहवीं गाथा के समान ही उद्योत-चतुष्क परिगणित हैं तथा कर्मकाण्ड-गाथा १२१ में शुक्ललेश्या का बन्ध-स्वामित्व कहा हुआ है जिसमें उद्योत चतुष्क का वर्जन है। इस प्रकार कर्मग्रन्थ तथा गोम्मटसार में बन्ध-स्वामित्व समान होने पर भी दिगम्बरीय शास्त्र में उपर्युक्त विरोध नहीं आता। क्योंकि दिगम्बर-मत के अनुसार लान्तव (श्वेताम्बर-प्रसिद्ध लान्तक) देवलोक में पद्मलेश्या ही है-(तत्त्वार्थ-अध्याय-४-सू. २२ की सर्वार्थसिद्धि टीका)। अतएव दिगम्बरीय सिद्धान्तानुसार यह कहा जा सकता है कि सहस्रार देवलोक पर्यन्त के बन्ध-स्वामित्व में उद्योत-चतुष्क का परिगणन है सो पद्मलेश्या वालों की अपेक्षा से, शुक्ललेश्या वालों की अपेक्षा से नहीं। परन्तु तत्त्वार्थ भाष्य, संग्रहणी आदि-श्वेताम्बर-शास्त्र में देवलोकों की लेश्या के विषय में जैसा उल्लेख है उसके अनुसार उक्त विरोध का परिहार नहीं होता। यद्यपि इस विरोध के परिहार के लिये श्री जीवविजयजी ने कुछ भी नहीं कहा है, पर श्री जयसोमसूरि ने तो यह लिखा है कि 'उक्त विरोध को दूर करने के लिये यह मानना चाहिये कि नौवें आदि देवलोकों में ही केवल शुक्ललेश्या है।' उक्त विरोध के परिहार में श्री जयसोमसूरि का कथन ध्यान देने योग्य है। उस कथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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