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________________ कर्मग्रन्थभाग-१ बात निर्विवाद सिद्ध है कि इस समय जो जैनधर्म श्वेताम्बर या दिगम्बर शाखारूप से वर्तमान है, इस समय जितना जैन-तत्त्व ज्ञान है और जो विशिष्ट परम्परा है वह सब भगवान् महावीर के विचार का चित्र है। समय के प्रभाव से मूल वस्तु में कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है, तथापि धारणाशील और रक्षणशील जैनसमाज के लिए इतना नि:संकोच कहा जा सकता है कि उसने तत्त्वज्ञान के प्रदेश में भगवान महावीर के उपदिष्ट तत्त्वों से न तो अधिक गवेषणा की है और न ऐसा सम्भव ही था। परिस्थिति के बदल जाने से चाहे शास्त्रीय भाषा और प्रतिपादन शैली, मूल प्रवर्तक की भाषा और शैली से कुछ बदल गई हो; परन्तु इतना सुनिश्चित है कि मूल तत्त्वों में और तत्त्व-व्यवस्था में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है। अतएव जैन-शास्त्र के नयवाद, निक्षेपवाद, स्याद्वाद आदि अन्य वादों के समान कर्मवाद का आविर्भाव भी भगवान् महावीर से हुआ है-यह मानने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं की जा सकती। वर्तमान जैनआगम, किस समय और किसने रचे, यह प्रश्न ऐतिहासिक दृष्टि से भले ही विवादास्पद हो; लेकिन उनको भी इतना तो अवश्य मान्य है कि वर्तमान जैनआगम के सभी विशिष्ट और मुख्य वाद, भगवान् महावीर के विचार की विभूति हैं। कर्मवाद, यह जैनों का असाधारण व मुख्य वाद है, इसलिये उसके भगवान् महावीर से आविर्भूत होने के विषय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता। भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुए २६०० वर्ष बीते। अतएव वर्तमान कर्मवाद के विषय में यह कहना कि इसे उत्पन्न हुए ढाई हजार वर्ष हुए, सर्वथा प्रामाणिक है। भगवान् महावीर के शासन के साथ कर्मवाद का ऐसा सम्बन्ध है कि यदि वह उससे अलग कर दिया जाय तो उस शासन में शासनत्व (विशेषत्व) ही नहीं रहता—इस बात को जैनधर्म का सूक्ष्म अवलोकन करने वाले सभी ऐतिहासिक भली-भाँति जानते हैं। इस जगह यह कहा जा सकता है कि 'भगवान महावीर के समान, उनसे पूर्व, भगवान् पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि हो गये हैं। वे भी जैनधर्म के स्वतन्त्र प्रवर्तक थे और सभी ऐतिहासिक उन्हें जैनधर्म के धुरन्धर नायक रूप में स्वीकार भी करते हैं। फिर कर्मवाद के आविर्भाव के समय को उक्त समय-प्रमाण से बढ़ाने में क्या आपत्ति है?' परन्तु इस पर कहना यह है कि कर्मवाद के उत्थान के समय के विषय में जो कुछ कहा जाय वह ऐसा हो कि जिसके मानने में किसी को किसी प्रकार की आनाकानी न हो। यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि भगवान् नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ आदि जैनधर्म के मुख्य प्रवर्तक हुए और उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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