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कर्मग्रन्थभाग-३
आदि जीव तिर्यञ्च आय तथा मनुष्य आय का बंध कर सकते हैं। परन्तु ९४ प्रकृतियों का बंध मानने वाले आचार्य कहते हैं कि सासादन भाव में रहकर इन्द्रिय पर्याप्ति को पूर्ण करने की तो बात ही क्या शरीर पर्याप्ति को भी पूर्ण नहीं कर सकते अर्थात् शरीर पर्याप्ति पूर्ण करने के पहले ही एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त जीव सासादन भाव से च्युत हो जाते हैं। इसलिये वे दूसरे गुणस्थान में रहकर आयु को बांध नहीं सकते।।१२।।
१. ९४. प्रकृतियों का बन्ध मानने वाले आचार्य के विषय में श्री जयसोमसूरि ने अपने
गुजराती टब्बे में लिखा है कि वे आचार्य श्रीचन्दसूरि प्रमुख हैं।' उनके पक्ष की पुष्टि के विषय में श्री जीवविजयजी अपने टब्बे में कहते हैं कि 'यह पक्ष युक्त जान पड़ता है। क्योंकि एकेन्द्रिय आदि की जघन्य आयु भी २५६ आवलिका प्रमाण है, उसके दो भाग–अर्थात् १७१ आवलिकायें बीत चुकने पर आयु-बन्ध सम्भव है। पर उसके पहले ही सास्वादनसम्यक्त्व चला जाता है, क्योंकि वह उत्कृष्ट ६ आवलिकायें तक ही रह सकता है। इसलिये सास्वादन-अवस्था में ही शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति का पूर्ण बन जाना मान लिया जाय तथापि उस अवस्था में आयु-बन्ध का किसी तरह सम्भव ही नहीं।' इसी की पुष्टि में उन्होंने औदारिक मिश्र मार्गणा का सास्वादन गुणस्थान-सम्बन्धी ९४ प्रकृतियों के बंध का भी उल्लेख किया है ९६ का बंध मानने वाले आचार्य का क्या अभिप्राय है इसे कोई नहीं जानता। यही बात श्री जीवविजयजी
और श्री जयसोमसूरि ने अपने टब्बे में कही है। ९४ के बंध का पक्ष विशेष सम्मत जान पड़ता है क्योंकि उस एक ही पक्ष का उल्लेख गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में भी
पुण्णिदरं विगि बिगले तत्थुप्पणो हु सासणो देहे। पज्जत्तिं ण वि पावदि इहि नरतिरियाउगं णत्थि।।१३।। अर्थात् एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में पूर्णेतर-लब्धि अपर्याप्त—के समान बंध होता है। उस एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय में पैदा हुआ सासादन सम्यक्त्वी जीव शरीर पर्याप्ति को पूरा कर नहीं सकता, इससे उसको उस अवस्था में मनुष्य आयु या तिर्यञ्च-आयु का बंध नहीं होता।
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