________________
कर्मग्रन्थभाग-३
१७१ छनवइ सासणि विण सुहु-मतेर केइ पुणबिंति चउनवइं। तिरियनराऊहि विणा, तणुपज्जत्तिं न ते जंति।।१२।। पण्णवतिः सासादने विना सूक्ष्मत्रयोदश केचित्पुनर्बुवन्ति। तिर्यग्नरायुा विना तनुपर्याप्ति न ते यान्ति।। १२।।।
अर्थ-पूर्वोक्त एकेन्द्रिय आदि जीव दूसरे गुणस्थान में ९६ प्रकृतियों को बांधते हैं, क्योंकि पहले गुणस्थान की बंध योग्य १०९ में से सूक्ष्मत्रिक से लेकर सेवार्थ-पर्यन्त १३ प्रकृतियों को वे नहीं बांधते। कोई आचार्य कहते हैं कि'ये एकेन्द्रिय आदि, दूसरे गुणस्थान के समय तिर्यश्च आयु तथा मनुष्य आयु को नहीं बांधते, इससे वे उस गुणस्थान में ९४ प्रकृतियों को ही बांधते हैं। दूसरे गुणस्थान में तिर्यञ्च आयु तथा मनुष्य आयु बांध न सकने का कारण यह है कि वे एकेन्द्रिय आदि, उस गुणस्थान में रह कर शरीरपर्याप्ति पूरी नहीं कर पाते।।१२।।
भावार्थ:-एकेन्द्रिय आदि को अपर्याप्त अवस्था ही में दूसरे गुणस्थान का बंध सम्भव है; क्योंकि जो भवनपति, व्यन्तर आदि मिथ्यात्व से एकेन्द्रिय आदि की आयु बांध कर पीछे से सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं वे मरण के समय सम्यक्त्व को वमते हुए एकेन्द्रिय-आदि-रूप से पैदा होते हैं, उसी समय उनमें सासादन सम्यक्त्व पाया जाता है।
दूसरे गुणस्थान में वर्तमान एकेन्द्रिय आदि जीवों के बन्धस्वामित्व के विषय में जो मत-भेद ऊपर कहा गया है, उसे समझने के लिये इस सिद्धान्त को ध्यान में रखना आवश्यक है कि- 'कोई भी जीव इन्द्रिय पर्याप्ति पूरी किये बिना आयु को बाँध नहीं सकता।'
९६ प्रकृतियों का बन्ध मानने वाले आचार्य का अभिप्राय यह जान पड़ता है कि इन्द्रियपर्याप्ति के पूर्ण हो चुकने के बाद जब आयु-बंध का काल आता है तब तक सासादन भाव बना रहता है। इसलिये सासादन गुणस्थान में एकेन्द्रिय १. 'न जंति ज ओ' इत्यपि पाठः। २. इस गाथा में वर्णन किया हुआ ९६ और ९४ प्रकृतियों के बन्ध का मतभेद प्राचीन
बन्धस्वामित्व में है; यथासाणा बंधहि सोलस, निरतिग हीणा य मोत्तु छन्नउइं। ओघेणं वीसुत्तर-सयं च पंचिदिया बंधे।।२३।। इग विग लिन्दी साणा, तणु पज्जत्तिं न जंति जं तेण। नर तिरयाउ अबधा, मयं तरेणं तु चउणउइं।।२४।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org