________________
कर्मग्रन्थभाग- ३
औदारिक
अंगोपांग-(५४)
औदारिक- द्विक— औदारिकशरीर, बज्रऋषभनाराचसंहनन (५५) । इस प्रकार ५५ प्रकृतियाँ हुईं || ३॥
१५१
भावार्थ- उक्त ५५ कर्म- प्रकृतियों का विशेष उपयोग इस कर्म-ग्रन्थ में संकेत के लिये है। यह संकेत इस प्रकार है
और
किसी अभिमत प्रकृति के आगे जिस संख्या का कथन किया हो, उस प्रकृति से लेकर उतनी प्रकृतियों का ग्रहण उक्त ५५ कर्म - प्रकृतियों में से किया जाता है। उदाहरणार्थ – 'सुरएकोन विंशति' यह संकेत देवद्विक से लेकर आतपपर्यन्त १९ प्रकृतियों का बोधक है ।। २ - ३ ||
'चौदह मार्गणाओं में से गति मार्गणा को लेकर नरक गति का बन्धस्वामित्व चार गाथाओं से कहते हैं
सुरइगुणवीसवज्जं, इगसउ ओहेण बंधहिं निरया । तित्थ विणा मिच्छिसयं, सासणि नपु-चउ विणाछनुई || ४ || सुरै कोनविंशतिवर्जमेकशतमोघेन बध्नन्ति निरयाः । तीर्थविनामिथ्यात्वेशतं सास्वादने नपुंसकचतुष्कं विनाषण्णवतिः । । ४ । ।
अर्थ - नारक जीव, बन्धयोग्य १२० कर्म - प्रकृतियों में से १०९ कर्मप्रकृतियों को सामान्यरूप से बाँधते हैं; क्योंकि वे सुरद्विक से लेकर आतपनाकर्मपर्यन्त १९ प्रकृतियों को नहीं बाँधते । पहले गुणस्थान में वर्तमान नारक १०१ में से तीर्थंकर नामकर्म को छोड़ शेष १०० प्रकृतियों को बाँधते हैं।
दूसरे गुणस्थान में वर्तमान नारक, नपुंसक आदि ४ प्रकृतियों को छोड़ कर उक्त १०० में से शेष ९६ प्रकृतियों को बाँधते हैं ॥४॥
भावार्थ
ओघबन्ध - किसी खास गुणस्थान या खास नरक की विवक्षा किये बिना ही सब नारक जीवों का जो बन्ध कहा जाता है वह उनका 'सामान्य-बन्ध' या 'ओघ - बन्ध' कहलाता है।
Jain Education International
विशेषबन्ध - किसी खास गुणस्थान या किसी खास नरक को लेकर नारकों में जो बन्ध कहा जाता है वह उनका 'विशेषबन्ध' कहलाता है। जैसे यह कहना कि मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती नारक १०० प्रकृतियों को बाँधते हैं इत्यादि । इस तरह आगे अन्य मार्गणाओं में भी सामान्यबन्ध और विशेषबन्ध का मतलब समझना चाहिए।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org