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________________ १३६ कर्मग्रन्थभाग-२ जीव को एक समय में दो आयु से अधिक आयु की सत्ता हो नहीं सकती; परन्तु योग्यता सब कर्मों की हो सकती है जिससे सामग्री मिलने पर जो कर्म अभी वर्तमान नहीं है उसका भी बन्ध और सत्ता हो सके। इस प्रकार की योग्यता को सम्भवसत्ता कहते हैं और वर्तमान कर्म की सत्ता को स्वरूप-सत्ता।।२५।। चतुर्थ-आदि गुणस्थानों में प्रकारान्तर से भी सत्ता का वर्णन करते हैंअपुव्वाइ चउक्के अण-तिरि-निरयाउ विणु बियाल-सयं। संमाइ चउसु सत्तग-खयंमि इगचत्त सयमहवा ।।२६।। अपूर्वादिचतुष्केऽनतिर्यग्निरयायुर्विना द्वाचत्वारिंशच्छतम् । सम्यगादिचतुर्षु सप्तकक्षय एकचत्वारिंशच्छतमथवा ।। २६।।. अर्थ–१४८ कर्म-प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धि-चतुष्क तथा नरक और तिर्यञ्चआयु-इन छ: के अतिरिक्त शेष १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता आठवें से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों में होती है तथा अनन्तानुबन्धि चतुष्क और दर्शन-त्रिक-इन सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर शेष १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता चौथे से सातवें पर्यन्त चार गुणस्थानों में हो सकती है।॥२६॥ भावार्थ-पञ्चसंग्रह का सिद्धान्त है कि 'जो जीव अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क को विसंयोजना नहीं करता वह उपशम-श्रेणि का प्रारम्भ नहीं कर सकता। यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि 'नरक की या तिर्यञ्च की आयु को बाँधकर जीव उपशम-श्रेणि को नहीं कर सकता'। इन दो सिद्धान्तों के अनुसार १४२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता का पक्ष माना जाता है; क्योंकि जो जीव अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क की विसंयोजना कर और देव-आयु को बाँधकर उपशम श्रेणि को करता है उस जीव को अष्टम आदि ४ गुणस्थानों में १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है। विसंयोजना, क्षय को ही कहते हैं; परन्तु क्षय और विसंयोजना में इतना ही अन्तर है कि क्षय में नष्टकर्म का फिर से सम्भव नहीं होता और विसंयोजना में होता है। चौथे से लेकर सातवें पर्यन्त चार गुणस्थानों में वर्तमान जो जीव, क्षायिकसम्यक्त्वी हैं—अर्थात् जिन्होंने अनन्तानुबन्धिकषाय-चतुष्क और दर्शन-त्रिकइन सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय किया है, उनकी अपेक्षा से उक्त चार गुणस्थानों में १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता मानी गई है। क्षायिक-सम्यक्त्वी होने पर भी जो चरम शरीरी नहीं हैं-अर्थात् जो उसी शरीर से मोक्ष को नहीं पा सकते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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