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________________ कर्मग्रन्थभाग-२ १३५ (१) औदारिक-बन्धन-नामकर्म, (२) वैक्रिय-बन्धन-नामकर्म, (३) आहारकबन्धन-नामकर्म, (४) तैजस-बन्धनकर्म और (५) कार्मण-बन्धन-नामकर्म-ये पाँच बन्धन-नामकर्म। (१) औदारिक-संघातन-नामकर्म, (२) वैक्रिय-संघातननामकर्म, (३) आहारक-संघातन-नामकर्म, (४) तैजस-संघातन-नामकर्म और (५) कार्मण-संघातन-नामकर्म, ये पाँच संघातन-नामकर्म। (१) कृष्ण-नामकर्म, (२) नील-नामकर्म, (३) लोहित-नामकर्म, (४) हारिद्र-नामकर्म और (५) शुक्ल-नामकर्म-ये पाँच वर्ण-नामकर्म। (१) सुरभि-गन्ध-नामकर्म और दुरभि-गन्ध-नामकर्म ये दो गन्ध-नामकर्म। (१) तिक्तरस-नामकर्म, (२) कटुकरस-नामकर्म, (३) कषायरस-नामकर्म, (४) अम्लरस-नामकर्म, (५) मधुररस-नामकर्म-ये पाँच रस-नामकर्म। (१) कर्कश-स्पर्श-नामकर्म, (२) मृदुस्पर्श-नामकर्म, (३) लघुस्पर्श-नामकर्म, (४) गुरुस्पर्श-नामकर्म, (५) शीतस्पर्श-नामकर्म, (६) उष्णस्पर्श-नामकर्म, (७) स्निग्धस्पर्श-नामकर्म, (८) दक्ष-स्पर्श-नामकर्म-ये आठ स्पर्श नामकर्म। इस तरह उदय योग्य १२२ कर्म-प्रकृतियों में बन्धन-नामकर्म तथा संघातन-नामकर्म के पाँच-पाँच भेदों को मिलाने से और वर्णादिक के सामान्य चार भेदों के स्थान में उक्त प्रकार से २० भेदों के गिनने से कुल १४८ कर्म-प्रकृतियाँ सत्ताधिकार में होती हैं। इन सब कर्म-प्रकृतियों के स्वरूप की व्याख्या पहले कर्मग्रन्थ से जान लेनी चाहिये। जिसने पहले, नरक की आयु का बन्ध कर लिया है और पीछे से क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व को पाकर उसके बल से तीर्थङ्कर-नामकर्म को भी बाँध लिया है, वह जीव नरक में जाने के समय सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व को अवश्य ही प्राप्त करता है। ऐसे जीव की अपेक्षा से ही, पहले गुणस्थान में तीर्थङ्कर-नामकर्म की सत्ता मानी जाती है। दूसरे या तीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव, तीर्थङ्कर-नामकर्म को बाँध नहीं सकता; क्योंकि उन दो गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व ही नहीं होता जिससे कि तीर्थङ्कर-नामकर्म बाँधा जा सके। इस प्रकार तीर्थङ्कर-नामकर्म को बाँध कर भी कोई जीव सम्यक्त्व से च्यूत होकर, दूसरे या तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर नहीं सकता। अतएव कहा गया है कि दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थङ्कर-नामकर्म को छोड़, १४७ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता हो सकती है।। पहले गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक ११ गुणस्थानों में से दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर शेष नौ गुणस्थानों में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता कही जाती है; सो योग्यता की अपेक्षा से समझना चाहिये। क्योंकि किसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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