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________________ कर्मग्रन्थभाग-२ गुणस्थान से अवश्य ही गिरता है। गुणस्थान का समय पूरा न हो पाने पर भी जो जीव भव के (आयु के) क्षय से गिरता है वह अनुत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न होता है और चौथे ही गुणस्थान को प्राप्त करता है। क्योंकि उस स्थान में चौथे के अतिरिक्त अन्य गुणस्थानों का सम्भव नहीं है। चौथे गुणस्थान को प्राप्त कर वह जीव उस गुणस्थान में जितनी कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का, उदय का तथा उदीरणा का सम्भव है उन सब कर्म-प्रकृतियों के बन्ध को, उदय को और उदीरणा को एक साथ शुरु कर देता है। परन्तु आयु के रहते हुए भी गुणस्थान का समय पूरा हो जाने से जो गिरता है वह आरोहण-क्रम के अनुसार, पतन के समय, गुणस्थानों को प्राप्त करता है-अर्थात् उसने आरोहण के समय जिस-जिस गुणस्थान को पाकर जिन-जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का, उदय का और उदीरणा का विच्छेद किया हुआ होता है, गिरने के वक्त भी उस-उस गुणस्थान को पाकर वह जीव उन-उन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध को, उदय को और उदीरणा को शुरू कर देता है। अद्धा-क्षय से-अर्थात् गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने से गिरनेवाला कोई जीव छठे गुणस्थान तक आता है, कोई पाँचवें गुणस्थान में, कोई चौथे गुणस्थान में और कोई दूसरे गुणस्थान में भी आता है) यह कहा जा चुका है कि उपशमश्रेणिवाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अवश्य ही गिरता है। इसका कारण यह है कि उसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति क्षपक-श्रेणिं के बिना नहीं होती। एक जन्म में दो से अधिक बार उपशम-श्रेणि नहीं की जा सकती और क्षपक-श्रेणि तो एक बार ही होती है। जिसने एक बार उपशम-श्रेणि की है वह उस जन्म में क्षपकश्रेणि कर मोक्ष को पा सकता है। परन्तु जो दो बार उपशम-श्रेणि कर चुका है वह उस जन्म में क्षपक-श्रेणि कर नहीं सकता। यह तो हआ 'कर्मग्रन्थ' का अभिप्राय। परन्तु सिद्धान्त का अभिप्राय ऐसा है कि जीव एक जन्म में एक बार ही श्रेणि कर सकता है। अतएव जिसने एक बार उपशम-श्रेणि की है वह फिर उसी जन्म में क्षपक-श्रेणि नहीं कर सकता। उपशम-श्रेणि के आरम्भ का क्रम संक्षेप में इस प्रकार है-चौथे, पाँचवे, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान में वर्तमान जीव पहले चार अनन्तानुबन्धिकषायों का उपशम करता है और पीछे दर्शनमोहनीय-त्रिक का उपशम करता है। इसके बाद वह जीव छढे तथा सातवें गुणस्थान में सैकड़ों बार आता और जाता है। पीछे आठवें गुणस्थान में होकर नौवें गुणस्थान को प्राप्त करता है और नौवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम शुरू करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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