SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मग्रन्थभाग-२ अपने विशेष्य के स्वरूप मात्र को जनाता है। 'व्यावर्तक विशेषण' उस विशेषण को कहते हैं जिस विशेषण के रहने से ही इष्ट-अर्थ का बोध हो सकता हैअर्थात् जिस विशेषण के अभाव में इष्ट के अतिरिक्त दूसरे अर्थ का भी बोध होता है।) ___'उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान' इस नाम में १. उपशान्तकषाय, २. वीतराग और ३ छद्मस्थ, ये तीन विशेषण हैं। जिनमें 'छद्मस्थ' यह विशेषण स्वरूप-विशेषण है; क्योंकि उस विशेषण के न होने पर भी शेष भाग सेअर्थात् उपशान्तकषाय-वीतराग-गुणस्थान इतने ही नाम से इष्ट अर्थ का (ग्यारहवें गुणस्थान का) बोध हो जाता है, और इष्ट के अतिरिक्त दूसरे अर्थ का बोध नहीं होता। अतएव छद्मस्थ यह विशेषण अपने विशेष्य का स्वरूपमात्र बतलाता है। उपशान्तकषाय और वीतराग ये दो, व्यावर्तक-विशेषण हैं; क्योंकि उनके रहने से ही इष्ट अर्थ का बोध हो सकता है, और उनके अभाव में इष्ट के सिवा अन्य अर्थ का भी बोध होता है। जैसे—उपशान्त कषाय इस विशेषण के अभाव में वीतरागछद्मस्थ-गुणस्थान इतने नाम से इष्ट-अर्थ के (ग्यारहवें गुणस्थान के) अतिरिक्त बारहवें गुणस्थान का भी बोध होने लगता है। क्योंकि बारहवें गुणस्थान में भी जीव को छद्म (ज्ञानावरण-आदि घाति कर्म) तथा वीतरागत्व (राग के उदय का अभाव) होता है, परन्तु 'उपशान्त कषाय' इस विशेषण के ग्रहण करने से बारहवें गुणस्थान का बोध नहीं हो सकता; क्योंकि बारहवें गुणस्थान में जीव के कषाय उपशान्त नहीं होते, बल्कि क्षीण हो जाते हैं। इसी तरह वीतराग इस विशेषण के अभाव में 'उपशान्तकषाय छद्मस्थ गुणस्थान' इतने नाम से चतुर्थ पंचम-आदि गुणस्थानों का भी बोध होने लगता है। क्योंकि चतुर्थ, पञ्चम आदि गुणस्थानों में भी जीव के अनन्तानुबन्धी कषाय उपशान्त हो सकते हैं। परन्तु 'वीतराग' इस विशेषण के रहने से चतुर्थ पञ्चम आदि गुणस्थानों का बोध नहीं हो सकता; क्योंकि उन गुणस्थानों में वर्तमान जीव को राग के (माया तथा लोभ के) उदय का सद्भाव ही होता है। अतएव वीतरागत्व असंभव है। इस ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मानी जाती है। इस गुणस्थान में वर्तमान जीव आगे के गुणस्थानों को प्राप्त करने के लिये समर्थ नहीं होता; क्योंकि जो जीव क्षपक-श्रेणि को करता है वही आगे के गुणस्थानों को पा सकता है। परन्तु ग्यारहवें गुणस्थान में वर्तमान जीव तो नियम से उपशम-श्रेणि करनेवाला ही होता है, अतएव वह जीव ग्यारहवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy