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________________ ९० कर्मग्रन्थभाग-२ आगे पीछे कर लेना अर्थात् अनिवृत्तिकरण के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल में मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के जितने दलिक उदय में आनेवाले हों, उनमें से कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय पर्यन्त उदय में आनेवाले दलिकों में स्थापित किया जाता है और कुछ दलिकों को उस अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले दलिकों के साथ मिला दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल ऐसा हो जाता है कि जिसमें मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का दलिक रहता ही नहीं। अतएव जिसका अबाधा काल पूरा हो चुका है, ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय-कर्म के दो भाग हो जाते हैं। एक भाग तो वह जो अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदयमान रहता है, और दूसरा भाग वह जो अनिवृत्तिकरण के बाद एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल व्यतीत हो चुकने पर उदय में आता है। इन दो भागों में से पहले भाग को मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति और दूसरे भाग को द्वितीय स्थिति कहते हैं। जिस समय में अन्त:करण क्रिया शुरू होती है-अर्थात् निरन्तर उदययोग्य दलिकों का व्यवधान किया जाता है, उस समय से अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उक्त दो भागों में से प्रथम भाग का उदय रहता है। अनिवृत्तिकरण का अन्तिम समय व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व का किसी भी प्रकार का उदय नहीं रहता। क्योंकि उस वक्त जिन दलिकों के उदय का सम्भव है, वे सब दलिक, अन्तकरण क्रिया से आगे और पीछे उदय में आने योग्य कर दिये जाते हैं। अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त मिथ्यात्व का उदय रहता है, इसलिये उस वक्त तक जीव मिथ्यात्वी कहलाता है। परन्तु अनिवृत्तिकरण काल व्यतीत हो चुकने पर जीव को औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। क्योंकि उस समय मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का विपाक और प्रदेश दोनों प्रकार से उदय नहीं होता। इसलिये जीव का स्वाभाविक सम्यक्त्वगुण व्यक्त होता है और औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व उतने काल तक रहता है जितने काल तक के उदय योग्य दलिक आगे पीछे कर लिये जाते हैं। पहले ही कहा जा चुका है कि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त वेदनीय दलिकों को आगे पीछे कर दिया जाता है इससे यह भी सिद्ध है कि औपशमिक सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहता है। इस औपशमिक सम्यक्त्व के प्राप्त होते ही जीव को पदार्थों की स्फुट या असंदिग्ध प्रतीति होती है, जैसे कि जन्मान्ध मनुष्य को नेत्रलाभ होने पर होती है तथा औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होते ही मिथ्यात्व-रूप महान् रोग हट जाने से जीव को ऐसा अपूर्व आनन्द अनुभव में आता है जैसा कि किसी बीमार को अच्छी औषधि के सेवन से बीमारी के हट जाने पर अनुभव में आता है। इस औपशमिक सम्यक्त्व के काल को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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