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________________ कर्मग्रन्थभाग- २ बल से जीव आयु को छोड़ शेष सात कर्मों की स्थिति को पल्योपमासंख्यात भाग न्यून कोटा - कोटी सागरोपम प्रमाण कर देता है। इसी परिणाम का नाम शास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण है। यथाप्रवृत्तिकरण से जीव राग-द्वेष की एक ऐसी मजबूत गाँठ, जो कि कर्कश, दृढ और गूढ़ रेशम की गाँठ के समान दुर्भेद है वहाँ तक आता है, परन्तु उस गाँठ को भेद नहीं सकता, इसी की ग्रन्थिदेश की प्राप्ति कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण से अभव्य जीव भी ग्रन्थिदेश की प्राप्ति कर सकते हैं - अर्थात् कर्मों की बहुत बड़ी स्थिति को घटाकर अन्तः कोटा - कोटि सागरोपम प्रमाण कर सकते हैं, परन्तु वे राग-द्वेष की दुर्भेद ग्रन्थि को तोड़ नहीं सकते। और भव्य जीव यथाप्रवृत्तिकरण नामक परिणाम से भी विशेष शुद्धपरिणाम को पा सकता है तथा उसके द्वारा राग-द्वेष की दृढतम ग्रन्थि की - अर्थात् राग-द्वेष के अति दृढ - संस्कारों को छिन्न-भिन्न कर सकता है। भव्य जीव जिस परिणाम से राग-द्वेष की दुर्भेद ग्रन्थि को लाँघ जाता है, उस परिणाम को शास्त्र में 'अपूर्वकरण' कहते हैं। 'अपूर्वकरण' नाम रखने का मतलब यह है कि इस प्रकार का परिणाम कदाचित् ही होता है, बार-बार नहीं होता। अतएव वह परिणाम अपूर्व - सा है । इसके विपरीत 'यथाप्रवृत्तिकरण' नामक परिणाम तो अभव्य जीवों को भी अनन्त बार आता है। अपूर्वकरण - परिणाम से जब रागद्वेष की ग्रन्थि टूट जाती है, तब तो और भी अधिक शुद्ध परिणाम होता है। इस अधिक शुद्ध परिणाम को 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं। इसे अनिवृत्तिकरण कहने का अभिप्राय यह है कि इस परिणाम के बल से जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर ही लेता है । सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना वह निवृत्त नहीं होता - अर्थात् पीछे नहीं हटता । इस अनिवृत्तिकरण नामक परिणाम के समय वीर्य समुल्लासअर्थात् सामर्थ्य भी पूर्व की अपेक्षा बढ़ जाता है । अनिवृत्तिकरण की स्थिति अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण मानी जाती है । अनिवृत्तिकरण की अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति में से जब कई एक भाग व्यतीत हो जाते हैं, और एक भाग मात्र शेष रह जाता है, तब अन्त:करण की क्रिया शुद्ध होती । अनिवृत्तिकरण की अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति का अन्तिम एक भाग — जिसमें अन्त:करण की क्रिया प्रारम्भ होती हैवह भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण की होता है। अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हैं, इस लिये यह स्पष्ट है कि अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त की अपेक्षा उसके अन्तिम भाग का अन्तर्मुहूर्त्त जिसको अन्तःकरण क्रियाकाल कहना चाहिये -- वह छोटा होता है । अनिवृत्तिकरण के अन्तिम भाग में अन्तःकरण की क्रिया होती है इसका मतलब यह है कि अभी जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म उदयमान है, उसके उन दलिकों को जो कि अनिवृत्ति के बाद अन्तर्मुहूर्त्त तक उदय में आनेवाले हैं, For Private & Personal Use Only Jain Education International ८९ www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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