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________________ कर्मग्रन्थभाग- १ ६७ ४. जिस शक्ति के द्वारा जीव श्वासोच्छ्वास- योग्य पुद्गलों को (श्वासोच्छ्वास- प्रायोग्य वर्णना - दलिकों को ) ग्रहण कर, उनको श्वासोच्छ्वास के रूप में बदलकर तथा अवलम्बन कर छोड़ देता है, उसे 'उच्छ्वास पर्याप्ति' कहते हैं। जो पुद्गलों, आहार- शरीर - इन्द्रियों के बनने में उपयोगी हैं, उनकी अपेक्षा, श्वासोच्छ्वास के पुद्गल भिन्न प्रकार के हैं। उच्छ्वास पर्याप्ति का जो स्वरूप कहा गया उसमें पुद्गलों का ग्रहण करना, परिणमाना तथा अवलम्बन करके छोड़ना ऐसा कहा गया है। अवलम्बन कर छोड़ना, इसका तात्पर्य यह है कि छोड़ने में भी शक्ति की जरूरत होती है इसलिये, पुद्गलों के अवलम्बन करने से एक प्रकार को शक्ति पैदा होती है जिससे पुद्गलों को छोड़ने में सहारा मिलता है। इसमें यह दृष्टान्त दिया जा सकता है कि जैसे, गेंद को फेंकने के समय, जिस तरह हम उसे अवलम्बन करते हैं; अथवा बिल्ली, ऊपर कूदने के समय, अपने शरीर के अवयवों को सङ्कुचित कर, जैसे उसका सहारा लेती है उसी प्रकार जीव, श्वासोच्छवास के पुद्गलों को छोड़ने के समय उसका सहारा लेता है। इसी प्रकार आगे - भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति में भी समझना चाहिये । ५. जिस शक्ति के द्वारा जीव, भाषा- योग्य पुद्गलों को लेकर उनको भाषा के रूप में बदल कर तथा अवलम्बन कर छोड़ता है उसे 'भाषा-पर्याप्ति' कहते हैं। ६. जिस शक्ति के द्वारा जीव, मनो- योग्य पुद्गलों को लेकर उनको मन के रूप में बदल देता है तथा अवलम्बन कर छोड़ता है, वह 'मनः - पर्याप्ति' कहलाता है। इन छह पर्याप्तियों में से प्रथम की चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीव को, पाँच पर्याप्तियाँ विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय को और छह पर्याप्तियाँ संज्ञिपञ्चेन्द्रिय हो होती हैं। पर्याप्त जीवों के दो भेद हैं- १. लब्धि पर्याप्त और २. करण-पर्याप्त। १. जो जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं, वे 'लब्धि - पर्याप्त' कहलाते हैं। २. करण का अर्थ है इन्द्रिय, जिन जीवों ने इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण कर ली है - अर्थात् आहार शरीर और इन्द्रिय तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं, वे 'करण-पर्याप्ति हैं, क्योंकि बिना आहार पर्याप्ति और शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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