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________________ ६६ कर्मग्रन्थभाग-१ बादर पृथ्वीकाय आदि जीवों के शरीर-समुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति प्रकट है जिससे कि वे शरीर दृष्टिगोचर होते हैं। पर्याप्तनाम-कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं, वह पर्याप्त नामकर्म है। जीव की उस शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं, जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उनको आहार, शरीर आदि के रूप में बदल देने का काम होता है। अर्थात् पुद्गलों के उपचय से जीव की पुद्गलों के ग्रहण करने तथा परिणमाने की शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। विषयभेद से पर्याप्ति के छह भेद हैं-आहार-पर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति, इन्द्रिय-पर्याप्ति, उच्छ्वास-पर्याप्ति, भाषा-पर्याप्ति और मन:पर्याप्ति। ___ मृत्यु के बाद जीव, उत्पत्ति-स्थान में पहुँचकर कार्मण-शरीर के द्वारा जिन पुद्गलों को प्रथम समय में ग्रहण करता है उनके छह विभाग होते हैं और उनके द्वारा एक साथ छहों पर्याप्तियों का बनना शुरू हो जाता है—अर्थात् प्रथम समय में ग्रहण किये हुये पुद्गलों के छह भागों में से एक-एक भाग लेकर हर एक पर्याप्ति का बनना शुरू हो जाता है, परन्तु उसकी पूर्णता क्रमशः होती है। जो औदारिक-शरीरधारी जीव हैं, उनकी आहार-पर्याप्ति एक समय में पूर्ण होती है, और अन्य पाँच पर्याप्तियाँ अन्तमुहूर्त में क्रमश: पूर्ण होती हैं। वैक्रियशरीरधारी जीवों की शरीर-पर्याप्ति के पूर्ण होने में अन्तर्मुहूर्त समय लगता है और अन्य पाँच पर्याप्तियों के पूर्ण होने में एक-एक समय लगता है। १. जिस शक्ति के द्वारा जीव बाह्य आहार को ग्रहण कर उसे, खल और रस के रूप में बदल देता है वह 'आहार-पर्याप्ति' कहलाता है। २. जिस शक्ति के द्वारा जीव, रस के रूप में बदल दिये हुये आहार को सात धातुओं के रूप में बदल देता है उसे 'शरीर-पर्याप्ति' कहते हैं। सात धातुओं के नाम-रस, खून, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा (हड्डी के अन्दर का पदार्थ) और वीर्य। यहाँ यह सन्देह होता है कि आहार-पर्याप्ति से आहार का रस बन चुका है, फिर शरीर-पर्याप्ति के द्वारा भी रस बनाने की शुरुआत कैसे कही गई? इसका समाधान यह है कि आहार-पर्याप्ति के द्वारा आहार का जो रस बनता है उसकी अपेक्षा शरीर-पर्याप्ति के द्वारा बना हुआ रस भिन्न प्रकार का होता है। और, यही रस, शरीर के बनने में उपयोगी है। ३. जिस शक्ति के द्वारा जीव, धातुओं के रूप में बदले हुये आहार को इन्द्रियों के रूप में बदल देता है उसे 'इन्द्रिय-पर्याप्ति' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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