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________________ ६४ कर्मग्रन्थभाग-१ भावार्थ अगुरुलघु नाम-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर न भारी होता है और न हल्का ही होता है, उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवों का शरीर भारी नहीं होता कि उसे सम्भालना कठिन हो जाय अथवा इतना हलका भी नहीं होता कि हवा में उड़ने से नहीं बचाया जा सके, किन्तु अगुरुलघुपरिमाण वाला होता है इसलिए अगुरुलघु नामकर्म के उदय से समझना चाहिये। तीर्थंकर नाम-जिस कर्म के उदय से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है उसे 'तीर्थंकर नामकर्म, कहते हैं। इस कर्म का उदय उसी जीव को होता है जिसे केवलज्ञान (अनन्तज्ञान, पूर्ण ज्ञान) उत्पन्न हुआ है। इस कर्म के प्रभाव से वह अपरिमित ऐश्वर्य का भोक्ता होता है। संसार को दिखलाता है जिस पर खुद चलकर उसने कृत-कृत्य-दशा प्राप्त कर ली है इसलिये संसार के बड़े से बड़े शक्तिशाली देवेन्द्र और नरेन्द्र तक उसकी अत्यन्त श्रद्धा से सेवा करते हैं। 'निर्माण नामकर्म और उपघात नामकर्म का स्वरूप' अङ्गोवंगनियमणं निम्माणं कुणइ सुत्तहारसमं । उवधाया उवहम्मइ सतणुवयवलंबिगाईहिं ।। ४८।। (निम्माणं) निर्माण नामकर्म (अंगोवंगनियमण) अङ्गों और उपाङ्गों का नियमन-अर्थात् यथा योग्य प्रदेशों में व्यवस्थापन कुणइ) करता है, इसलिये यह (सुत्ताहारसमं) सूत्रधार के सदृश हैं। (उवघाया) उपध्यात नामकर्म के उदय से (सतणुवयवलंबिगाईहिं) अपने शरीर के अवयवभूत लंबिका आदि से जीव (उवहम्मइ) उपहत होता है ।।४८॥ भावार्थ-जिस कर्म के उदय से, अङ्ग और उपाङ्ग, शरीर में अपनीअपनी जगह व्यवस्थित होते हैं वह 'निर्माण नामकर्म' है। इसे सूत्रधार की उपमा दी है-अर्थात् जैसे, कारीगर हाथ पैर आदि अवयवों को मूर्ति में यथोचित स्थान पर बना देता है उसी प्रकार निर्माण नामकर्म का काम अवयवों के उचित स्थान में व्यवस्थापित करना है। इस कर्म के अभाव में अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से बने हुये अङ्ग-उपाङ्गों के स्थान का नियम नहीं होता-अर्थात् हाथों की जगह हाथ, पैरों की जगह पैर, इस प्रकार स्थान का नियम नहीं रहता। जिस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों से प्रति जिह्वा (पडजीभ), चौरदन्त (ओठ से बाहर निकले हुए दाँत), रसौली, छठी उंगली आदि सेक्लेश पाता है। वह 'उपघात नामकर्म' है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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