SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मग्रन्थभाग- १ ५३ सङ्घातन नाम-कर्म पुद्गलों को सन्निहित करता है और बन्धन नाम उनको सम्बद्ध करता है। शरीरनाम की अपेक्षा से जिस प्रकार बन्धन नाम के पाँच भेद किये गये उसी प्रकार संघातननाम के भी पाँच भेद हैं १. जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो, वह औदारिक संघातन नामकर्म कहलाता है। २. जिस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो, वह वैक्रिय संघातन नाम है । ३. जिस कर्म के उदय से आहारक शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो, वह आहारक संघातन नाम है। ४. जिस कर्म के उदय से तैजस शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो, वह तैजस संघातन नाम कहलाता है। ५. जिस कर्म के उदय से कार्मण शरीर के रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो, वह कार्मण संघातन नाम कहलाता है। उसे ‘इकतीसवीं गाथा में ‘संतेवा पनरबंधणे तिसयं' ऐसा कहा है, करने के लिए बन्धन नाम के पन्द्रह भेद दिखलाये हैं। ' ओरालविउव्वाहारयाण सगतेयकम्मजुत्ताणं । नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिन्नि तेसिं च ।। ३७ ।। स्फुट (सगतेयकम्मजुत्ताणं) अपने-अपने तैजस तथा कार्मण के साथ संयुक्त ऐसे (ओरालविउव्वाहारयाण) औदारिक, वैक्रिय और आहारक के (नव बंधणाणि) नौ बन्धन होते हैं | ( इयर दुसहियाणं ) इतर दो- तैजस और कार्मण इनके साथ अर्थात् मिश्र के साथ औदारिक, वैक्रिय और आहारक का संयोग होने पर ( तिन्नि) तीन बन्धन प्रकृतियाँ होती हैं। (च) और (तेसिं) उनके अर्थात् तैजस और कार्मण के, स्व तथा इतर से संयोग होने पर, तीन बन्धन - प्रकृतियाँ होती हैं ॥ ३७॥ भावार्थ - इस गाथा में बन्धन - नामकर्म के पन्द्रह भेद किस प्रकार होते हैं वह दिखलाते हैं औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीनों का स्वकीय पुद्गलों से अर्थात् औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर रूप से परिणत पुद्गलों से, तैजस पुद्गलों से तथा कार्मण पुद्गलों से सम्बन्ध करानेवाले बन्धन - नामकर्म के नौ भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy