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________________ लेखकीय संस्कृत साहित्य में नाटकों के निर्माण की परम्परा बहुत पुरानी है और आदिकाल से ही भारतीय जन-जीवन के मनोरञ्जन के लिए इन नाटकों को श्रेष्ठ माध्यम के रूप में अपनाया जाता रहा है। अभिनेय काव्य (नाटक) ही एक ऐसा काव्याङ्ग है, जिससे रङ्गमञ्च के वातावरण, पात्रों के आङ्गिक, वाचिक, आहार्य और सात्त्विक अभिनय एवं क्रिया-व्यापार के द्वारा हृदयहीन सामाजिक भी सहृदय सामाजिक की भाँति अलौकिक आनन्द का रस प्राप्त कर लेता है। संस्कृत के नाटकों की उपयोगिता का दूसरा कारण यह है कि इसमें जनभावना की प्रधानता है। संस्कृत के नाटककारो ने अपने नाटकों की कथावस्तु धर्मग्रन्थों, पुराणों या काव्यों से उधार लेकर उसको जनता की रुचि में ढालकर देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार जन-रंजन की दृष्टि से ऐसे नाटकों की योजना की जो विद्वत्समाज तथा जनसामान्य के लिए एक जैसी उपयोगिता अर्जित कर सकते थे। स्पष्ट है कि एक काव्यकार की अपेक्षा एक नाटककार अधिक दायित्व अनभव करता है। यद्यपि काव्यकार और नाटककार दोनों कवि है. तथापि दोनों में मौलिक अन्तर है। कवि की निष्ठा वर्तमान की अपेक्षा भविष्य के प्रति अधिक होती है और नाटककार के समक्ष भविष्य की अपेक्षा वर्तमान का तकाजा अधिक बलवान होता है। भरतमनि का कथन है कि नाट्यवेद तीनों लोकों के भावों का अनुकरण है, जिसके अन्तर्गत धर्म, अर्थ, शान्ति, युद्ध, क्रीड़ा, हास्य आदि सभी बातों का समावेश रहता है। अर्थात इसमें न केवल धर्मात्मा या ज्ञानियों की ही चर्चा रहती है या उसका निर्माण न केवल विशिष्ट वर्ग के लिए किया गया है, वरन् कामुकों के लिए कामसेवन, दुर्विनीतों के लिए निग्रह की सामग्री, क्लीबों के क्लीबत्व तथा शूर-वीरों के उत्साह की भी उसमें व्यवस्था रहती है; उसमें मुों की मूर्खता, विद्वानों की विद्वता, धनिकों के विलास, दुःखार्तों के लिए आश्वासन, अर्थलिप्सुओं को अर्थोपलब्धि के उपाय, आर्तजनों के लिए त्राण आदि ऐसे विभिन्न विषयों का समावेश एक साथ रहता है, जिसमें असमान प्रकृति के लोग अपने-अपने भावों तथा अपनी-अपनी रुचियों, समस्याओं एवं अवस्थाओं का पूरा चित्र अपनी आँखों से देख सकें। वस्तुतः, मानवीय सुख-दुःखात्मक संवेदनाओं की जिस अनुभूति को कवि दृश्यकाव्य के रूप में अभिव्यक्ति प्रदान करता है, काव्य के उस भाव को स्पष्ट करना सारस्वत-साधना के बिना सम्भव ही नहीं है। और इसका सम्पूर्ण श्रेय मैं अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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