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प्रकाशकीय
संस्कृत साहित्य में 'महाभारत' की नल-दमयन्ती कथा को उपजीव्य बनाकर अनेक काव्यग्रन्थों की रचना हुई है, महाकवि श्रीहर्ष का 'नैषधीयचरितम्' महाकाव्य तो सुप्रसिद्ध है ही इसके अतिरिक्त अनेक कवियों द्वारा बहुत से काव्य नाटकादि भी लिखे गए हैं। इसका कारण नल-दमयन्ती के पावन चरित के प्रति कवियों का विशेष आकर्षण रहा है। महाभारत में नलकथा को कलिमलनाशन माना गया है
कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च । ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् ।
इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि नलचरित के कथन एवं श्रवण करने वाले को लक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती-
वनपर्व ७९/१०
ये चेदं कथयिष्यन्ति नलस्य चरितं महत् । श्रोष्यति चाप्यभीक्ष्णं वै नालक्ष्मीस्तान् भजिष्यति ।। वनपर्व ७९/१५
जैन कवियों को भी नल के चरित ने विशेषरूप से आकर्षित और प्रभावित किया है क्योंकि महाभारत में वर्णित राजा नल को भी अहिंसा, सत्य, तप, क्षमा आदि गुणों से समन्वित बताया गया है
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अहिंसानिरतो यश्च सत्यवादी दृढव्रतः । यस्मिन् दाक्ष्यं धृतिर्ज्ञानं तपः शौचं दमः क्षमा । ।
प्रस्तुत नाटक 'नलविलास' के रचयिता रामचन्द्रसूरि हैं जिनका समय ईसा की १२ वीं शताब्दी है । कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य के ये प्रमुख शिष्य रहे हैं। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी जिनमें से ३९ ग्रन्थ ही अद्यावधि उपलब्ध होते हैं। ये केवल कवि ही नहीं आचार्य भी थे, गुणचन्द्र के साथ मिलकर इन्होंने प्रसिद्ध नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ 'नाट्यदर्पण' की रचना की थी।
हिन्दी अनुवाद तथा विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित यह 'नलविलास' सुधीजनों के समक्ष उपस्थित है। इसके गुण दोषों का वे ही विचार कर सकते हैं। अनुवाद और भूमिका लेखक डॉ. धीरेन्द्र मिश्र (शोध अध्येता, संस्कृत विभाग, काशी
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