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________________ षष्ठोऽङ्कः १५५ सूत्रधारः- यदमी दमयन्ती-गन्धार-पिङ्गलकनेपथ्यधारिणो रङ्गोपजीविनः संरभन्ते, तज्जाने प्रवृत्तं नाट्यम्। तदहमपि कार्यान्तरमनुतिष्ठामि। (अञ्जलिं बद्ध्वा) जयति स पुरुषविशेषो नमोऽस्तु तस्मै त्रिधा त्रिसन्ध्यमपि। स्वप्रेऽपि येन दृष्टं नेष्टवियोगोद्भवं दुःखम्।।५।। __ (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः) (ततः प्रविशति दमयन्ती गन्धारः पिङ्गलकश्च) गन्थार:-आयें! अलमतिप्रलपितेन। आगच्छाचलपुरयायिनो धनदेवनामः सार्थवाहस्याभ्यर्णम्। दमयन्ती- (१) अज्ज! अत्तणो भत्तारं गवेसइस्सं। - गन्धारः- आर्ये! कस्ते पतिः? सत्रधार- जैसा कि दमयन्ती गान्धार पिङ्गलक के वस्त्र को धारण करने वाले नट लोग शीघ्रता कर रहे हैं, उससे तो अभिनय प्रारम्भ किया गया ही समझना चाहिए। इसलिए मैं भी अन्य कार्य करने के लिए जाता हूँ। (अञ्जलि बाँधकर) वह पुरुष विशेष जिसने स्वप्न में भी प्रिय-वियोगजन्य कष्ट को नहीं देखा है (उसकी) जय हो, (और उन्हें) मैं कालिक (प्रात:, मध्याह्न और संध्याकालीन) नमस्कार करता हूँ।।५।। (यह कहकर के चला जाता है) (पश्चात् दमयन्ती, गन्धार और पिङ्गलक रङ्गमञ्च पर आता है) गन्धार- आयें! अधिक विलाप करना व्यर्थ है। आओ अचलपुर को जाने वाले धनदेव नामक सार्थवाह के समीप चलें। दयमन्ती- आर्य! मैं अपने स्वामी को खोनँगी। गन्धार- आयें! तुम्हारा स्वामी कौन है? (१) आर्य! आत्मनो भर्तारं गवेषयिष्यामि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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