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________________ पञ्चमोऽङ्कः १४१ तापस:- अनुचितं गृहस्थकृत्यचिन्तनं तपस्विनः। तथापि साप्तपदीनसौहादोंप हृतहृदयो महाभागं किमप्यनुशास्मि। राजा- अनुगृहणातु महात्मा। तापस:- भ्रष्टराज्यस्य भवतः श्वशुरकुलगमनमपत्रपावहं मेत्रपाकारि प्रतिभाति। त्वमप्यधिमनसमालोचय यद्ययमार्थः समर्थः प्रदर्शयितुमौचितीम्। राजा- (स्वगतम्) इदमप्यस्य वचनं तथ्यं पथ्यं च। तदानीं स्वयंवरे तथा चमूचक्रेण गत्वा पुनरिदानी दमयन्तीमात्रपरिच्छदः कुण्डिनं प्रविशंस्तत्रत्यपौरजनानामपि हास्यपात्रं भविष्यामि। तदियमेवैका देवी ज्ञातविदर्भपथाभिज्ञाना कुण्डिनमुपसर्पतु। (प्रकाशम्) भगवन्! सौहृदसदशमनुशिष्टवानसि। तापस- गृहस्थ के अनुरूप तपस्वीजन के लिए चिन्तन करना उचित नहीं है। फिर भी साप्तपदीन मैत्री से आकृष्ट हृदय वाल मैं श्रीमान् को कुछ कहना चाहूँगा। राजा- महात्मन्! कहने की कृपा करें। तापस- नष्ट-राज्य वाले आपका श्वशुरकुल जाना निर्लज्जता को प्राप्त कराने वाला है (अत: ऐसे आपका वहाँ जाना) मुझे लज्जाकर प्रतीत होता है। आप भी (अपने) मन में भलीभाँति विचार कर लें कि मेरी यह वाणी औचित्य का प्रतिपादन करने में समर्थ है या नहीं। राजा- (अपने मन में) इसका यह वचन भी यथार्थ और स्वीकार करने योग्य है। उस समय स्वयंवर में उस प्रकार से सेना-समूह के द्वारा जाकर पुन: इस समय दमयन्ती मात्र परिजन के रूप में कुण्डिन नगरी में प्रवेश करता हुआ मैं वहाँ के नगरवासियों के द्वारा उपहास का पात्र ही होऊँगा। इसलिए विदर्भदेश के मार्ग को जानने वाली यह दमयन्ती अकेली ही कुण्डिन नगरी जाय। (प्रकट में) भगवन्! मित्र सदृश उपदेश आपने दिया है। तापस- (हर्ष के साथ मन ही मन) गुरु के एक आदेश का तो पालन हो गया। परन्तु दूसरे आदेश का पालन करने के लिए यहीं ठहरता हूँ। (ऊपर की ओर देखकर प्रकट में भय के साथ) भगवान् सूर्य ललाट को तपा रहे हैं अत: (मध्याह्नकालिक) सन्ध्या-वन्दन का समय हो गया है। श्रीमान्! मुझे मध्याह्नकालिक सन्ध्या-वन्दन करने १. ख ग. . पद्रुत। २ क. शसितास्मि। ३ ख. ग. .मर्थः प्रवहितु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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