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चतुर्थोऽङ्कः
११७ प्रश्यद्विन्दुतरङ्गभङ्गिपटलैर्यद्वाहिनीवारण
श्रेणीदानजलैर्बिभर्ति जगती कस्तूरिकामण्डनम्।।१३।। दमयन्ती-(१) अम्मो! ईदिसं पि कसिणभीसणं माणुसरूवं भोदि। अज्ज! तुरिदमग्गदो वच, वेवदि मे हिदयं।
(माधवसेनः स्मित्वा परिक्रामति) नलः- (दमयन्तीमवलोक्य कलहंसं प्रति) पश्य पश्य कौतूहलम्।
चापल्यं दृशि शाश्वतं कुटिलतां चूर्णालकेषु स्थिरामौद्धत्यं कुचयोरनन्यशरणं मध्ये परां तुच्छताम्।
बिभ्राणाऽपि विदर्भराजतनया प्रीत्यै सतां चेतसः कलहंस:- देव! किमदः कौतूहलम्? यतः
दोषा अप्यतिशेरते क्वचिदपि स्थाने प्ररूढा गुणान्।।१४।। में सम्मिलित हाथियों के मदजल रूपी गिरते हुए गोल-गोल मदजल-बिन्दु की धारा समूह द्वारा जगत् कस्तूरी (सुगन्धित द्रव्य) के लेप से अलंकृत शोभा को धारण करता है, अर्थात् शोभायमान है।।१३।।
दमयन्ती-ओह, ऐसा काला-भयङ्कर आकृति वाला भी मनुष्य होता है। आर्य! शीघ्र आगे बढ़ो, क्योंकि मेरा हृदय काँप रहा है।
__ (माधवसेन स्मित हास के साथ घूमता है) नल- (दमयन्ती को देखकर कलहंस से) आश्चर्यजनक देखो
नेत्रों में निरन्तर चञ्चलता, चूंघराले केशों में स्थायी कुटिलता (टेढ़ापन तथा) उन्नत स्तनों के मध्य (हृदय) में किसी अन्य के लिए स्थान नहीं होने से अत्यन्त हेयता को धारण करती हुई भी प्रसन्नता के लिए ही है--- ।
कलहंस- तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? क्योंकिदोष (अवगुण) भी स्थान-विशेष पर उत्कृष्ट गुण हो जाते हैं।।१४।।
(१) अहो! ईदृशमपि कृष्णभीषणं मनुष्यरूपं भवति। आर्य! त्वरितमग्रतो व्रज, वेपते मे हृदयम्। टिप्पणी- 'जगती'- 'जगती लोको विष्टपं भुवनं जगत्' इत्यमरः।
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