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________________ सातवां अधिकार [ ७५ शरीरहीसे न ? फिर क्यों कर बुद्धिमान इनके द्वारा सुखकी चाह कर सकते हैं ? दुःखका समुद्र और विषम यह संसार अनंत है, चार गतियों में भ्रमण करना इसका सार है, कोई कहे तो बुद्धिमानोंको प्रेम करने के लिये इसमें क्या उत्तम वस्तु है ? इत्यादि हितकर और वैराग्यके वचनों द्वारा धन्यकुमार ने शालीभद्रके रोम२ में वैराग्य ठसाकर उसे मुनिपदके लिये उत्तेजित कर दिया और उससे भी कहीं बढ़ा चढ़ा स्वयं वैरागी होकर जल्दी ही अपने घर पर गया । शालीभद्र धन्यकुमारका बड़ा भारी साहस देखकर सब धन और घर बार छोड़ कर उसके पीछे हो घरसे निकला। धन्यकुमारने घर पर आकर राज्यभार तो अपने बड़े पुत्र धनपालको सौपा और आप श्रेणिक, माता पिता भाई और बन्धुओंसे क्षमा कराकर शालीभद्र तथा और भो कितने ही लोगोंके साथ श्री वर्द्धमान भगवानके समवः . शरणमें गया । ___ वहां त्रिभुवनके स्वामी जगद्गुरु श्री महावीर भगवानकी तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें भक्तिपूर्वक बिनीत मस्तकसे नमस्कार किया और उत्तम२ द्रोके द्वारा उनकी पूजा कर स्तुति करना आरम्भ की विभो ! आप संसारके स्वामी हैं, सबका हित करनेवाले हैं, बड़े भारी गुरू हैं, विना कारण जगतके बन्धु हैं और, आप ही जीवोंकी संसारके दुःखोंसे छुड़ानेवाले हैं। नाथ ! आज आपके चरणकमलों के दर्शन कर मेरे नेत्र सफल हुये और हाथ पूजन करनेसे । स्वामी ! आपके दर्शन के लिये यहां आने से पांव भी कृतार्थ हुये और नमस्कार करनेसे जीवन, जन्म तथा मस्तक पावन हुआ । पूज्यपाद ! आज मेरी जिह्वा आपके गुणोकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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