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________________ पहिला अधिकार [ ३ वाले भव्य पुरूषोंके द्वारा ध्यान करने योग्य सिद्ध भगवान का मैं प्रतिदिन स्मरण करता हूँ ।। ७-८ ।। छत्तीस गुण विराजमान, दर्शनाचार, ज्ञानावरणादि प्रभृति पञ्चाचार के परिपालन करनेमें तत्पर, त्रिभुवनके द्वारा अभिवन्द्यनीय तथा शिष्यों पर दया करनेवाले आचार्योंके लिये मैं अभिवन्दन करता हूं ||९|| जो अपने जन्म रूप आतापके नाश करनेके लिये अङ्ग पूर्व रूप पीयूष रसका स्वयं पान करते हैं तथा और भव्य जीवोंको पिलाते हैं ऐसे उपाध्यायोंका अपने आत्मस्वरूपकी समुपलब्धिके लिये स्तवन करता हूँ ||१०|| जो अखण्ड रत्नत्रय तथा आश्चर्यजनक योगका त्रिकाल साधन करते हैं वे साधुराज शिव प्राप्ति के लिये मुझे शक्ति प्रदान करें ||११|| सम्पूर्ण ऋद्धि तथा मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान से विभूषित, गुणोंके समुद्र, त्रिभुवनाधिपति से बंद - नीय तथा पूज्यनीय और सम्पूर्ण अङ्गों की रचना करने में सचमुच वृषभसेन प्रभृति गौतम गणधर पर्यन्त सर्व गणधरादि मेरे द्वारा स्तवन किये अपनी-अपनी बुद्धिके प्रदान करनेवाले हों ॥१२- १३ ॥ संपूर्ण सिद्धांत रूप वारिधिके पारको प्राप्त हुये सभ्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप अनर्घ्य रत्नसे अलंकृत, परिग्रह रहित, तथा दिशा रूप वस्त्रके धारण करने वाले और कितने कुन्दकुन्दादि विद्वान कविराज इस संसार में प्रसिद्ध हुये हैं । तथा गुणोंसे गुरुत्व पदको धारण करने वाले हैं । उन सब उत्तम२ महात्माओंका मैं स्तवन करता हूँ ।।१४-१५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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