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________________ ५४ ] श्री धन्यकुमार चरित्र ही बलभद्रको साथ लेकर उसको ढूढनेको निकली और धोरे२ उसी पर्वत पर जा पहुचो । वहां जाकर देखती है तो प्यारे पुत्रका आधा खाया हुआ कलेवर पड़ा हुआ है । उसके देखते ही उसकी जो दशा हुई वह अवर्णनीय थी। शोकका वेग उससे न रुका सो कातर स्वरसे मुक्तकण्ठ होकर रोने लगी। उधर अकृतपुण्य दिव्य उपपाद शय्यामें जन्म लेकर मुहूर्त मात्रमें पूर्ण यौवनसे सुन्दर देव हो गया। वह सोते हुयेको तरह उपपाद शय्यासे उठा और स्वर्गकी बड़ी भारी सम्पत्ति, देव सुन्दरियां, अपने सामने विनम्र खड़े देवता लोग और रत्नोंके बने हुए उत्तम२ महल इत्यादि विभव देखकर विचार करने लगा अहा ! मैं कौन है ? यह सुखमय स्थान किसका हैं ? ये दिव्य देह कौन हैं ? ये सुन्दरियां किनकी हैं ? और मह. लादि बहुतसी विभूति किसकी हैं ? ऐसा मेरा कौन भाग्योदय है जो ऐसे सु-स्थानमें लाया गया ? ____ इतना विचार करते ही उसे अवधिज्ञान हो गया जिसके द्वारा पूर्व जन्मकी सब बातें जानी जा सकती हैं। उसके द्वारा यह सब महिमा उसने दानादिके फलकी समझी । __ उसे मालूम हुआ कि मेरी माता रो रही है सों पहले ही धर्म लाभके लिये जिन मन्दिर में गया और वहां उत्तमर द्रव्योंसे तथा गीत वादित्रादिसे जिनेन्द्रकी महापूजा की जो पुण्यके उपार्जनको कारण है। बाद स्वर्गीय विभूति स्वीकार कर विमान पर चढ़ा और बहुत सम्पत्तिके साथ माताको समझानेके लिये पृथ्वी पर आया और उसे शोकसे कातर देखकर के लिये पृथ्वी और बहुत सम्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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