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________________ पंचम अधिकार [ ५३ जब अकृतपुण्यने इन व्रतोंका स्वरुप सादर सुना तो उसकी इनमें बड़ी ही श्रद्धा और भावना हो गई । अहा ! ये व्रत बड़े ही उत्तम और सब सुखके देनेवाले हैं। क्या ही अच्छा हो यदि मुझे जीवनर में इनका लाभ हो सके ? अकृतपुण्यके व्रतादिकी भावना रूप उत्तम परिणामोंके द्वारा जो शुभ कर्मका बन्ध हुआ, उसे स्वर्ग सुखका साधन कहना चाहिये । जब मुनिराजका धर्मोपदेश हो चुका तब सब श्रावक उन्हें नमस्कार कर और " णमो अरिहंताणं" इस मन्त्रराजके आदि चरणका उच्चारण करते हुये शैल गुहाके बाहर निकले । अकृतपुण्य भी मन्त्रराजका ध्यान करता हुआ उन लोगों के पीछेर चलने लगा सो इतनेमें उसके पूर्व जन्मके प्रबल पापके उदयसे उसे एक क्षुधातुर व्याघ्रने आकर खा लिया | अकृतपुण्य मन्त्रका स्मरण करता हुआ ही ससमाधि धराशायी हो गया । उसने जो पात्र दान प्रभृति शुभ कर्मोंके द्वारा पुण्य संपादन कर रखा था वह इस वक्त काम आ गया सो उसे सौधर्म स्वर्ग में महधिक देवका स्थान मिला । देखो ! अकृतपुण्यका भाग्योदय जो कहां तो उसके प्रबल पापका उदय और कहां दुर्लभ पात्रदान ? व्रतमें शुभ भावना तथा निधिकी तरह दुर्लभ मन्त्रराजकी अन्त समय में प्राप्ति, जो स्वर्ग प्रधान कारण समझे जाते हैं । अथवा यों कह दो कि जब शुभ वा अशुभ जैसी गति होना होती है तब उसी तरह की सामग्री भी मिल जाती है । उधर अकृतपुण्यकी माता मोहके वश होकर प्रातःकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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