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________________ ५० ] श्री धन्यकुमार चरित्र छोड़नेको अनर्थदण्डविरति व्रत कहते हैं । अनर्थदण्ड केवल पापका कारण है । उसके-पापोपदेश, हिंसादान, बुरा चिन्तवन, खोटे शास्त्रोंका सुनना और प्रमादचर्या ये पांच अनन्तकायिक कन्दमूलादि, सजीव फल पुष्पादि और आचार (अथाना) ये सब भी निंद्यनीय है अतः बुद्धिमानोंको छोड़ने चाहिये एक वक्त ही सुखके कारण अन्न पानादि योग्य वस्तुओंका और बार२ उपभोगमें आनेवाले वस्त्र, स्त्री प्रभृति उपभोग वस्तुओंका इन्द्रिय रुप चोरोंके वेगको रोक कर शांतिके लिए जो नियम करना है उसे भोगोपभोग नाम व्रत कहते हैं, यह व्रत सब सुख सामग्रीका स्थान है । शहर गली ग्राम आदिके द्वारा प्रतिदिन दिशाओंमें गमन करनेकी संख्याका नियम करनेको देशवकाशिक शिक्षाचत कहते हैं । ___ आर्ष और रौद्रादि दुर्व्यानके त्यागपूर्वक शांतभावसे 'प्रात:काल, मध्याह्न काल और सायंकालमें मन, वचन, कायकी शुद्धिके द्वारा अर्ह सिद्ध जिन वचन, जिन धर्म और साधुओंकी वन्दना करनेको सामायिक व्रत कहते हैं। यह व्रत धर्मका स्थान तथा पापका निर्मूल नाश करनेवाला है। अष्टमी और चतुर्दशीके दिन सब गृहारम्भ छोड़कर और गरुके द्वारा उपवासका नियम करके धर्म ध्यानके द्वारा काल बितानेको प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहते हैं । इसका फल स्वर्गादि सुख सामग्राका मिलना है । नियम पूर्वक प्रतिदिन पात्र दानके लिए गृह द्वार पर खडे होकर निरीक्षण करना और साक्षात्पात्रके मिलने पर एक मक्ति दान देना यह वैयावृत्य शिक्षावत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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