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पंचम अधिकार
पालनेका गृहस्थ तथा साधुओंके लिये जो उपदेश दिया है वह केवल इसी एक अहिंसा व्रतके लिये है।
हितरुप, परिमित, मधुर, धर्मका लिये हुये, संदेह रहित, सब जीवोंके सुखके कारण, कोमल, दूसरोंकी निन्दा रहित
और विश्वास योग्य सत्य वचन बोलनेको सत्याणुव्रत कहने हैं। यह व्रत भी विद्या, कीति और पुण्यका हेतू है ।।
अचौर्याणुव्रत उसे कहते हैं जो पड़े हुये, भूले हुये, खोये हुये और कहीं पर रखे हुये दूसरोंके धनका न लेना है। जैसे काले सर्पके पकड़ने में भय होता है उसी तरह उससे भी धर्मकी रक्षाके लिए पापसे डरनेवाले पुरुषोंको डरना चाहिये। क्योंकि इससे दूसरे लोगोंको बड़ा ही दुःख होता है। इस व्रतका फल सुखोपभोग करना है ।
शुद्ध हृदय, कुशील और अपनी ही स्त्रीमें सन्तोष रखनेवाले महात्माओंको अपने शील व्रत की रक्षाके लिये संसार भरकी स्त्रियां माता और पुत्रीकी तरह देखनी चाहिये यही त्रिभुवनजन महनीय चोथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है। ___ बुद्धिमानोंको लोभ कषाय घटानेके लिये धन-धान्य, सुवर्ण प्रभृति दश प्रकार बाह्य परिग्रहका प्रमाण करना चाहिये। क्योंकि इसके द्वारा आशा दिनोंदिन बढ़ती जाती है और चिन्ता तथा दुःख होता है । यह है बुरा, यह परिग्रह प्रमाण पांचमा अणुव्रत कहा गया है ।
दया तथा सन्तोषके लिये योजनादिके प्रमाणसे दश दिशाओंमें जानेको संख्या करना है उसे दिग्विरति व्रत कहते हैं । ___ जो निष्प्रयोजन हिंसादि पाप किया जाता है उसके
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