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श्रो धन्यकुमार चरित्र
नाममा
तकका भोजन हो सकता है । ठीक ऐसा ही अकृतपुण्यके यहां ऋद्धिधारी मुनिराजका आहार होनेसे हुआ-भोजन सामग्री अक्षय हो गई।
जब मुनिराज आहार करके चले गये तब अकृतपुण्यको माताने अपने पुत्रको यथेष्ठ जिमाया और आपने भी जोमा। परन्तु देखती है तो भोजन सामग्री उतनीको उतनी है । तब उसने अपने स्वामी बलभद्रको सकुटुम्ब भोजनके लिये बुलाया और उन्हें खुब जिमाया तब भी जब कमी नहीं हुई तो सारे शहरके लोगोंको जिमा दिया।
उस महा दानसे माता पुत्रको बहुत ही प्रसिद्धि हुई । उन्हें सब लोग मानने लगे, चन्द्रको तरह निर्मल सुयश चारों ओर फैल गया और पुण्य उपार्जनके करने वाले कहलाये ।
कुमार ! सुनो-यही दान दुर्गतिका नाशक है हितका करनेवाला है । इसलिये बुद्धिमानोंको दान देने में कभी आगा पीछा नहीं करना चाहिये ।
दानके द्वारा ही गृहस्थता गुणवती कही जाती है, बुद्धिमानोंका प्रयत्न दानके लिये हुआ करता है, दानको छोड़कर कोई उत्तम सुखका देने वाला भी नहीं है, समझदार ही दान देनेके योग्य होते हैं, दान ही दाताके मनको अपनी ओर खींचता है इसलिये कहना यही है कि सब लोग दान जरुर ही दिया करें।
त्रिकाल सम्बन्धी तत्वके विवेचन करने वाले धर्मके अधिष्ठाता जिनेन्द्र, अन्तरहित निरुपम और लोकाग्रवासी सिद्ध तथा महातपस्वी पञ्चाचारके पालनेवाले आचार्य
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