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________________ ४४ श्री धन्यकुमार चरित्र रास्ते में धारेर चलने लगे. इतनेमें वह भी उनके आगे होकर . जोर से बोलने लगा - न जाओ बड़ी ही अच्छी खीर समें बिगड़ा क्या जाता है । तात ! मेरे ऊपर दया करो थोड़ी देर ठहरो और यहासे बनी है । कहो तो आपका इतनी प्रार्थना करने पर भी जब मुनिराज न ठहरे तो अकृतपुण्य उनके पांव पकड़ कर बोला - देखो ! अब तो मैंने अपने हाथोंसे आपको खूब ही जोरसे पकड़ रखे हैं देखू कैसे जा सकोगें ? महाराज! आप बड़े ही दुर्लभ हैं । आखीर में मुनिन्द्रका भी दिल कुछ करुणाद्र हो आया सो उसे खेदित न कर थोड़ी देर तक समौन वहीं खड़े रहे । सच तो है साधु लोग सब पर दयालु होते हैं न ? इतनेही में शुभोदयसे उसकी माता भी जल लेकर आ गई । मुनिराजको देखकर उसे बड़ी खुशी हुई जैसे दुर्लभ धनके अनायास मिल जानेसे खुशी होती है । शिर परसे घड़ा जमीन पर उतारकर मुनिराज के चरणों को नमस्कार किया और विभो ! तिष्ठ ! तिष्ठ !! तिष्ठ !!! कहकर स्वामीका पड़गाहन किया बाद - वरमें लिवा ले जाकर उनके बिराजनेकों ऊंचा आसन दिया, जगद्गुरूको उस पर बैठाकर गरम जलसे उसके चरण कमल धोये और उस पादपबित्र जलको ललाटसे लगाकर उनकी पूजा की पश्चात् प्रणाम कर मन वचन कायको शुद्धिसे अकृतपुण्यकी माताने पुत्रके साथर बड़ा भारी शुभ पुण्य उपार्जन किया । कारण ये नवधा भक्ति पुण्य संपादनकी हेतु है । बाद श्रद्धा, शक्ति, निर्लोभता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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