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________________ चतुर्थ अधिकार [ ४३० चाहिये । जिससे हमारा गृहस्थाश्रम और जीवन सफल होगा साथ ही उत्तम पुण्य तथा लक्ष्मीकी सम्प्राप्ति हो सकेगी, जल भरनेके लिए चली गई । इतनेही में पुण्योदय से - बाह्याभ्यन्तर परिग्रह रहित, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्ररूप अमौल्य रत्नत्रय के आधार, दाताको सुख देनेके लिए दूसरे कल्पवृक्ष तपश्चरण के द्वारा क्षीण शरीरी, गुणराशि बिराजमान संसारके जीवोंका हित करने में सद। उत्सुक, अङ्ग पूर्वरूप समुद्रके पारगामी, ईर्यापथ रूप उत्तम नेत्रके धारक, सब वस्तुओं में उदासीन, ऊंच नीचका विचार न करनेवाले, धर्मके उपदेशक इन्द्र, धरणेन्द्र, राजा महाराजा और भव्य पुरुषोंके द्वारा वंदनीय महनीय और स्तवनीय, लाभ अलाभ सुख दुःखादिमें समदर्शी, जितेन्द्रिय, शांतमूर्ति परम कारुणिक, दिशारूप वस्त्र के धारक, धोंर अनेक ऋषियोंसे विभूषि और सर्वोत्कृष्ट महापात्र सुव्रत मुनिराजको एक महीने के उपवासके पारणाके दिन शरीर स्थिति के लिए बलभद्रके घरकी ओर आते हुये पासही में देखकर अकृतपुण्य शुद्ध मनसे विचारने लगा । । अहा ! ये बड़े भारी साधु हैं । देखो ! इनके पास वस्त्रादि कुछ भी नहीं है । ये मेरे बड़े भारी पुण्यसे आये हैं । इन्हें मैं न जाने दूं । यों विचार कर सरल अकृतपुण्य पुण्य से प्रेरणा किया हुआ झटसे उनके सामने जा खड़ा हुआ और अभिवन्दना कर बोला पूज्य ! माताने बहुत अच्छी खीर बनाई है वह आपके भोजनके लिये दी जावेगी । मेरी प्रार्थना है कि आप यहीं ठहरें तब तक जल लेकर मेरी माता भी आई जाती है । मुनिराज उसे यह समझाकर कि हमारा यह मार्ग नहीं है... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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