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________________ प्रस्तावना (प्रथम आवृत्ति) - आज मैं मोक्षके इच्छुक पाठकोंके सन्मुख इस यथार्थ गुणवाले परमात्मप्रकाश ग्रंथको दो टीकाओंसहित उपस्थित करता हूं। यह ग्रंथ साक्षात् मोक्षमार्गका प्रतिपादक है। जिस तरह श्रीकुंदकुंदाचार्यकी प्रसिद्ध नाटकत्रयी है उसी तरह यह भी अध्यात्मविषयकी परम सीमा है क्योंकि ग्रंथकर्ताने स्वयं इस ग्रंथके पढनेका फल लिखा है कि इसके हमेशा अभ्यास करनेवालोंको मोह कर्म दूर होकर केवलज्ञानपूर्वक मोक्ष अवश्य ही होसकता है परंतु इस ग्रंथके पात्र बनकर अभ्यास करना चाहिये अन्यथा वगलाभक्तिसे इच्छित फल नहीं मिल सकता । इसका आनंद वे ही भव्यजीव जान सकेंगे जो इसका शुद्ध मनसे स्वाध्याय और इसके अनुसार आचरण करेंगे। वचनसे इसकी प्रशंसा नहीं होसकती। कविवर बनारसीदासजीने भी अपने नाटकसमयसारमें कहा है कि 'हे जीव यदि तू असली आत्मीकसुखका स्वाद चखने चाहता है तो जैसे विषयभोगादिमें हमेशा चित्त लगाता है वैसे आत्माके स्वरूपके विचारमें छह महीना कमसे कम अभ्यास करके देख ले तो तुझे स्वयं उस परमानंदके रसका अनुभव होजाइगा' इत्यादि । इसलिये इसका पठन मनन करनेसे इसका आनंद व फल उनको अवश्य मिल सकेगा। इस आत्माकी अनंत शक्ति है यह बात आजकलके बिजली आदि अचेतन पदार्थीको देखनेवाले व्यवहारी जीवोंको झूठी मालूम पड़ती होगी परंतु जिसका “ आत्मा अनंत शक्तिवाला है" ऐसा वचन है उसीने यह भी कह दिया है “ जगज्जेत्रं जयेत् स्मरं, अर्थात् जगतको जीतनेवाले कामदेवको जिसने जीतलिया है" इस वचनकी तरफ किसीकी भी दृष्टि नहीं पड़ती। अतएव ब्रह्मचर्यपालनेवाला ही इसका पात्र हो सकता है। - इस ग्रंथके मूलकर्ता श्री योगींद्रदेव हैं। उन्होंने अपने 'प्रभाकरभट्ट ' के प्रश्न करनेपर जगतके सब भव्यजीवोंके कल्याण होनेका विचार रख कर उत्तररूप उपदेश प्राकृतभाषामें तीनसौ पैंतालीस दोहा छंदोमें दिया है। ये आचार्य इनकी कृति देखनेसे तो बहुत प्राचीन मालूम होते हैं परंतु इनका जन्मसंवत् तथा जन्मभूमि हमें निश्चित नहीं हुई है । इन प्राकृतदोहा सूत्रोंपर श्री ब्रह्मदेवजीने संस्कृतटीका रची। ब्रह्मदेवके समयनिर्णयके लिये बृहद्दव्यसंग्रहमें मुद्रित हो चुका है कि विक्रमकी १६ वीं शताब्दिके मध्यमें किसीसमय श्री ब्रह्मदेवजीने अपने अवतारसे भारतवर्षको पवित्र किया था । विशेष बृहव्यसंग्रहमेंसे देखलेना। इस संस्कृत टीकाके अनुसार ही पंडित दौलतरामजीने व्रजभाषा बनाई । यद्यपि उक्त पंडितजीकृत भाषा प्राचीनपद्धतिसे बहत ठीक है परंतु आजकलके नवीन प्रचलित हिंदीभाषाके संस्कारकमहाशयोंकी दृष्टिमें वह भाषा सर्वदेशीय नहीं समझी जाती है। इस कारण मैंने पंडित दौलतरामजीकृत भाषानुवादके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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