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दो० - ८० ]
योगसारः
[ द्वित्रिचतुःपञ्चापि नवानां सप्तानां षट् पञ्चानाम् । चतुर्गुणसहितं तं जानीहि एतानि लक्षणानि यस्य ॥ ]
पाठान्तर - १ ) अप-सहियो. २) अप-एहो, झ-एहउ.
अर्थ — दो, तीन, चार, पाँच, नौ, सात, छह, पाँच, और चार गुण, ये ( परमात्मा ) लक्षण
समझने चाहिये ॥ ७६ ॥
बे छंडिवि' बे-गुण-सहिउ जो अप्पाणि वसेई ।
जिणु सामिउ एमइँ भइ लहु णिव्वाणु लहेई ॥ ७७ ॥ [ द्वौ त्यक्त्वा द्विगुणसहितः यः आत्मनि वसति ।
जिनः स्वामी एवं भणति लघु निर्वाणं लभते ॥ ] पाठान्तर - १ ) अप-छंडवि. २) अपझ - विसेइ. ३) अपझ - जिणसामी एवं. ४) ब-लहेहि. अर्थ - जो दोका (राग द्वेष ) परित्याग कर, दो गुणोंसे ( सम्यग्ज्ञान दर्शन ) युक्त होकर आत्मामें निवास करता है, वह शीघ्र ही निर्वाण पाता है, ऐसा जिनेन्द्रभगवान् ने कहा है ॥ ७७ ॥ तिहि रहिय तिहि गुण-सहिउ जो अप्पाणि वसेइ । सो सासय-सु- भाणु वि जिणवरु एम भणेइ ॥ ७८ ॥ [ त्रिभिः रहितः त्रिभिः गुणसहितः यः आत्मनि वसति । स शाश्वतसुखभाजनं अपि जिनवरः एवं भणति ॥ ] पाठान्तर - १) अप-रहियो, झ-रहिउ तिह २) ब - अप्पाण ३) ब - सुहु भायणु अर्थ — जो तीनसे ( राग द्वेष मोह) रहित होकर तीन गुणोंसे ( सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ) युक्त होता हुआ आत्मामें निवास करता है, वह शाश्वत सुखका पात्र होता है, ऐसा जिनदेवने कहा है ॥ ७८ ॥
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चउ- कसाय सण्णा- रहिउ चउ-गुण-सहिय वुत्तु |
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ जिम पर होहि पविन्तु ॥ ७९ ॥
[ चतुः कषाय संज्ञारहितः चतुर्गुणसहितः उक्तः ।
स आत्मा (इति) जानीहि जीव त्वं यथा परः भवसि पवित्रः ॥ ] पाठान्तर - १) अप-सहियो, झ - सहिउ. २) अपझ - पर.
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अर्थ - हे जीव ! जो चार कषायों और चार संज्ञासे रहित होकर चार गुणोंसे (अनन्त दर्शन,
ज्ञान, सुख, वीर्य ) सहित होता है, उसे तू आत्मा समझ; जिससे तू परम पवित्र हो सके ।। ७९ ।। बे-पंच रहिय मुहि बे-पंच संजुत्तु ।
बे-पंच जो गुणसहिउ सो अप्पा णिरुं वुत्तु ॥ ८० ॥
[ द्विपञ्चानां ( - पञ्चभि: १) रहितः (इति) जानीहि द्विपञ्चानां संयुक्तः । द्विपञ्चानां यः गुणसहितः स आत्मा निश्चयेन उक्तः ॥ ]
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