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________________ ३७६ योगीन्दु-विरचितः [ दो० ७३[ यथा लोहमयं निगडं बुध तथा सुवर्णमयं जानीहि । ये शुभं अशुभं परित्यजन्ति ते अपि भवन्ति खलु ज्ञानिनः ॥] पाठान्तर-१) अ-लोहम्मय. २) ब-णिलय (णियल ? ). ३) अपझ-सो सुह. ४) अपम-हवंति ण. अर्थ-हे पण्डित ! जैसे लोहेकी साँकलको तू साँकल समझता हैं उसी तरह तू सोनेकी साँकलको भी साँकल ही समझ । जो शुभ अशुभ दोनों भावोंका परित्याग कर देते हैं, निश्चयसे वे ही ज्ञानी होते हैं ।। ७२ ॥ जइया मणु णिग्गंथु जिय तइया तुहुँ णिग्गंथु । जइया तुहँ णिग्गंथु जिय तो लब्भइ सिवपंथु ॥७३॥ [यदा मनः निर्ग्रन्थः जीव तदा वं निग्रन्थः।। यदा वं निर्ग्रन्थः जीव ततः लभ्यते शिवपन्थाः॥] पाठान्तर-१) अपन-ती. अर्थ-हे जीव ! जब तेरा मन निर्ग्रन्थ हो गया तो तू भी निर्ग्रन्थ हो गया; और जब तू निर्ग्रन्थ हो गया, तो उससे मोक्षमार्ग मिल जाता है ॥ ७३ ॥ जे वडमज्झहँ बीउ फुड बीयहं वडु वि हे जाणु । तं देहहँ देउ वि मुणहिजो तइलोय-पहाणु ।।७४ ॥ [ यद् वटमध्ये बीजं स्फुटं बीजे वटं अपि खलु जानीहि । तं देहे देवं अपि जानीहि यः त्रिलोकप्रधानः ॥] पाठान्तर-१) अपझ-बीज. २) अपझ-वड विह. ३) अप-देउ मुणहि. अर्थ-जैसे बड़के वृक्षमें वीज स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही बीजमें भी बड़वृक्ष रहता है। इसी तरह देहमें भी उस देवको विराजमान समझो, जो तीनों लोकोमें मुख्य है ।। ७४ ।। जो जिण सो हउँ सो जि हेउँ एहउ भाउ णिभंतु । मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु || ७५ ॥ [यः जिनः स अहं स एव अहं एतद् भावय निर्धान्तम् । मोक्षस्य कारणं योगिन् अन्यः न तन्त्रः न मन्त्रः॥] पाठान्तर-१) अ-णिरु. अर्थ- जो जिनदेव हैं वह मैं हूँ, वही मैं हूँ—इसकी भ्रान्तिरहित होकर भावना कर । हे योगिन् ! मोक्षका कारण कोई अन्य मन्त्र तन्त्र नहीं है ॥ ७५ ॥ बे ते चउ पंच वि णवहँ सत्तहँ छह पंचाहँ । चउगुण-सहियां सो मुणह एयइँ लक्खण जाहँ । ७६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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