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योगीन्दु-विरचितः
ण ते भयवंत बुह जे परभाव चयंति । लोयालोय - पयासयरु अप्पा विमल मुणंति ॥ ६४ ॥ [ धन्याः ते भगवन्तः बुधाः ये परभावं त्यजन्ति । लोकालोकप्रकाशकरं आत्मानं विमलं जानन्ति ॥ ]
पाठान्तर - १) ब-धम्मा. २) ब - अप्पा अप्पु.
अर्थ- —उन भगवान् पण्डितोंको धन्य हैं, जो परभावका त्याग करते हैं, और जो लोका
लोकप्रकाशक निर्मल आत्माको जानते हैं ॥ ६४॥
सागारु विणागारु कु विं जो अप्पाणि वसेइ ।
सोलह पावइ सिद्धि-सुहुँ जिणवरु एम भणेइ ॥ ६५ ॥ [ सागारः अपि अनगारः कः अपि यः आत्मनि वसति । स लघु मोति सिद्धिमुखं जिनवरः एवं भणति ॥ ]
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[ दो० ६४
पाठान्तर - १ ) अप-णागारु वि. २ ) प - सिद्धसुहु.
अर्थ- गृहस्थ हो या मुनि हो, जो कोई भी निज आत्मामें वास करता है, वह शीघ्र ही सिद्धिसुखको पाता है, ऐसा जिनभगवान् ने कहा है ॥ ६५ ॥
विरला जाणंहि तत्तु बुह विरला णिसुणैहि तत्तु । विरला झाहि तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ॥ ६६ ॥ [विरलाः जानन्ति तत्त्वं बुधाः विरलाः निशृण्वन्ति तत्त्वम् 1 विरलाः ध्यायन्ति तत्त्वं जीव विरलाः धारयन्ति तत्रम् ॥ ] २) अपझ-बुहु. ३) अपझ - णिसुणहु.
पाठान्तर - १ ) ब - जाणइहिं.
अर्थ – विरले पण्डित लोग ही तत्त्वोंको समझते हैं, विरले ही तत्त्वोंको श्रवण करते हैं, विरले ही तत्वका ध्यान करते हैं, और विरले जीव ही तत्वोंको धारण करते हैं ॥ ६६ ॥
इहु परियण ण हु महुतणडे इहु सुहु-दुक्खहँ हेउ । इम चिंतं किं करई लहु संसारहँ छेउ ॥ ६७ ॥ [ एष परिजनः न खलु मदीयः एष सुखदुःखयोः हेतुः ।
एवं चिन्तयतां किं क्रियते लघु संसारस्य छेदः ॥ ]
पाठान्तर - १ ) अझ महतणो प- महजणो. २) ब - इउ चिंतंतर किं करय.
अर्थ - यह कुटुम्ब परिवार निश्चयसे मेरा नहीं हैं. यह मात्र सुखदुःखका ही हेतु है— इस
प्रकार विचार करनेसे शीघ्र ही संसारका नाश किया जा सकता है ॥ ६७ ॥
इंद- फणिंद- रिंद विं जीवहँ सरणु ण होंति ।
असर जाणिवं मुणि-धवला अप्पा अप्प मुणंति ॥ ६८ ॥
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