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दो० -६३ ] योगसारः
३७३ अर्थ-हे जीव ! जैसे आकाश शुद्ध है वैसे ही आत्मा भी शुद्ध कही गई है। दोनोंमें अन्तर केवल इतना ही है कि आकाश जड़ है और आत्मा चैतन्यलक्षणसे युक्त है ॥ ५९॥
णासग्गि अन्भितरह जे जोवहि असरीरु । बाहुडि जम्मि ण संभवहि पिवैहि ण जणणी-खीरु ॥६० ॥
[नासाग्रेण अभ्यन्तरे (१) ये पश्यन्ति अशरीरम् ।
__ लज्जाकरे जन्मनि न संभवन्ति पिबन्ति न जननीक्षीरम् ॥] पाठान्तर-१) अप-णासगि. २) अपझ-जम्म ण संभवइ. ३) ब-पियहि.
अर्थ-जो नासिकापर दृष्टि रखकर अभ्यंतरमें अशरीरको (आत्माको) देखते हैं, वे इस लज्जाजनक जन्मको फिरसे धारण नहीं करते, और वे माताके दूधका पान नहीं करते ॥ ६० ॥
असरीरु वि सुसरीरु मुणि इहु सरीरु जडु जाणि । मिच्छा-मोहुँ परिचयहि मुत्ति णियं वि ण माणि ॥ ६१ ॥ [अशरीरं अपि सु(स-)शरीरं जानीहि इदं शरीरं जडं जानीहि ।
मिथ्यामोहं परित्यज मूर्ति निजां अपि न मन्यस्व ॥] पाठान्तर-१) ब-मिच्छामोहि. २) अपबझ-विणिमाणि.
अर्थ-अशरीर (आत्मा )को ही सुन्दर शरीर समझो, और इस शरीरको जड़ मानो; मिथ्यामोहका त्याग करो और अपने शरीरको भी अपना मत मानो ॥ ६१ ॥
अप्पइँ अप्पु मुणंतयह किं हा फलु होइ । केवल-णाणु वि परिणवइ सासय-सुक्खु लहेइ ।। ६२ ।। [आत्मना आत्मानं जानतां किं न इह फलं भवति ।
केवलज्ञानं अपि परिणमति शाश्वतसुखं लभ्यते ॥] पाठान्तर-१) अपक्ष-अप्पय.
अर्थ-आत्माको आत्मासे जाननेमें यहाँ कौनसा फल नहीं मिलता ? और तो क्या इससे. केवलज्ञान भी हो जाता है, और जीवको शाश्वत सुखकी प्राप्ति होती है ।। ६२ ॥
जे परभाव चएवि मुणि अप्पा अप्प मुणंति । केवल-णाण-सरुवं लइ (लहि ?) ते संसारु मुचंति ॥ ६३ ॥ [ये परभावं त्यक्त्वा मुनयः आत्मना आत्मानं जानन्ति ।
केवलज्ञानस्वरूपं लावा (लब्ध्वा ?) ते संसारं मुञ्चन्ति ॥] पाठान्तर-१) ब-सरूवि.
अर्थ-जो मुनि परभावका त्याग कर अपनी आत्मासे अपनी आत्माको पहिचानते हैं, वे केवलज्ञान प्राप्त कर संसारसे मुक्त हो जाते हैं ॥ ६३ ॥
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