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दो० - ५५ ]
योगसारः
जेहउ जज्जरु णरय-घरू तेहउ बुज्झि सरीरु ।
अप्पा भावेहि णिम्मलउ लहु पावहि भवतीरु ।। ५१ ।। [ यथा जर्जरं नरकगृहं तथा बुध्यस्व शरीरम् ।
आत्मानं भावय निर्मलं लघु प्राप्नोषि भवतीरम् ॥ ]
पाठान्तर - १) अपझ - भावहु.
अर्थ — हे जीव, जैसे नरकवास सैकड़ों छिद्रोंसे जर्जरित है, उसी तरह शरीरको भी (मल मूत्र आदिसे ) जर्जरित समझ । अतएव निर्मल आत्माकी भावना कर, तो शीघ्र ही संसारसे पार होगा ॥ ५१ ॥ धंधइ पडियउ सयले जगि गवि अप्पा हु मुणंति । तहि कारण एं जीव फुड ण हु णिव्वाणु लहंति ॥ ५२ ॥ [ धान्धे (?) पतिताः सकलाः जगति नैव आत्मानं खलु जानन्ति ।
तस्मिन् कारणे ( तेन कारणेन) एते जीवाः स्फुटं न खलु निर्वाणं लभन्ते ॥ ]
पाठान्तर - १ ) ब - सयल, २) प-तिहि कारणिए, अझ-तिहि कारणए.
अर्थ – सब लोग संसारमें अपने अपने धंधे में फँसे हुए हैं, और अपनी आत्माको नहीं पहिचानते । निश्चयसे इसी कारण ये जीव निर्वाणको नहीं पाते, यह स्पष्ट है ॥ ५२ ॥
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सत्य पढंत ते वि जड अप्पा जेण मुणंति ।
तहि कारण ऐ जीव फुड ण हु णिवाणु लहंति ॥ ५३ ॥ [ शास्त्रं पठन्तः ते अपि जडाः आत्मानं ये न जानन्ति ।
तस्मिन् कारणे (तेन कारणेन) एते जीवाः स्फुटं न खलु निर्वाणं लभन्ते ।। ]
पाठान्तर - १ ) अ-तिहिं कारणए, प-तिहि कारण, झ-तिह कारणए.
अर्थ - जो शास्त्रोंको तो पढ़ लेते हैं, परन्तु आत्माको नहीं जानते, वे लोग भी जड़ ही हैं । तथा निश्वयसे इसी कारण ये जीव निर्वाणको नहीं पाते यह स्पष्ट है ॥ ५३॥
- इंदिहि विछोडियई (?) बुहु पुच्छियइ ण कोइ । राय पसरु णिवारियइ सहजं उपज्जइ सोइ ॥ ५४ ॥ [ मनइन्द्रियेभ्यः अपि मुच्यते बुधः पृच्छयते न कः अपि । रागस्य प्रसरः निवार्यते सहजः उत्पद्यते स अपि ।। ]
पाठान्तर - १) अपझ-छोइयइ, ब- छोहियइ. २) पब- सहजि.
अर्थ — यदि पण्डित, मन और इन्द्रियोंसे छुटकारा पा जाय, तो उसे किसीसे कुछ पूँछनेकी ज़रूरत नहीं । यदि रागका प्रवाह रुक जाय, तो वह (आत्मभाव ) सहज ही उत्पन्न हो जाता है ॥५४॥
पुग्गल अष्णु जि अण्णु जिउ अण्णु वि सह ववहारु । यहि वि पुग्गल गहहि जिउ लहु पावहिं भवपारु ॥ ५५ ॥
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