________________
योगीन्दु-विरचितः
[दो० ४७पाठान्तर-१) अप-करालियो, झ-करालिओ. २) अ-तौ, झ-तउ.
अर्थ-हे जीव ! यदि तू जरा मरणसे भयभीत है तो धर्म कर, धर्मरसायनका पान कर; जिससे तू अजर अमर हो सके ॥ ४६॥
धम्मु ण पढियेइँ होइ धम्मु ण पोत्था-पिच्छिय । धम्मु ण मढिय-पएसि धम्म ण मत्था-लुचियइँ ॥४७॥ [धर्मः न पठितेन भवति धर्मः न पुस्तकपिच्छाभ्याम् ।
धर्मः न मठप्रवेशेन धर्मः न मस्तकलुञ्चितेन ॥] पाठान्तर-१) पझ-पढिया. २) प-पीछियइ, झ-पिछयइ. ३) अपब-पुस्तकेषु द्वितीयचतुर्थपादयोः ‘धम्म' इति नास्ति ।।
अर्थ-पढ़ लेनेसे धर्म नहीं होता; पुस्तक और पिच्छीसे भी धर्म नहीं होता; किसी मठमें रहनेसे भी धर्म नहीं है; तथा केशलोच करनेसेभी धर्म नहीं कहा जाता ॥ ४७ ॥
राय-रोस बे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ । सो धम्मु वि जिण-उत्तियर्ड जो पंचम-गइ णेई ॥ ४८ ॥ [रागरोषौ द्वौ परिहृत्य यः आत्मनि वसति ।
स धर्मः अपि जिनोक्तः यः पञ्चमगतिं नयति ॥] पाठान्तर-१) अपझ-परिहरइ. २) अपझ-उत्तियो. ३) अपझ-देइ.
अर्थ-जो राग और द्वेष दोनोंको छोड़कर निज आत्मामें वास करना है, उसे ही जिनेन्द्रदेवने धर्म कहा है । वह धर्म पंचमगति (मोक्ष) को ले जाता है ॥ ४८ ॥
आउ गलइ णवि मणु गलइ णवि आसा हु गलेई । मोहु फुरइ णवि अप्प-हिउ इम संसार भमेइ ।। ४९ ॥ [आयुः गलति नैव मनः (मानः ?) गलति नैव आशा खलु गलति ।
मोहः स्फुरति नैव आत्महितं एवं संसारं भ्रमति ।। ] पाठान्तर-१) ब-गलेहु.
अर्थ-आयु गल जाती है, पर मन नहीं गलता, और न आशा ही गलती है। मोह स्फुरित होता है, परन्तु आत्महितका स्फुरण नहीं होता-इस तरह जीव संसारमें भ्रमण किया करता है ॥४९||
जेहउ मणु विसयहँ रमई तिमु जई अप्प मुणेइ। जोइउ भणइ हो जोइय? लहु णिव्वाणु लहेइ ॥५०॥ [यथा मनः विषयाणां रमते तथा यदि आत्मानं जानाति ।
योगी भणति भो योगिनः लघु निर्वाणं लभ्यते ॥] पाठान्तर-१) अप-रमै. २) झ-तिम जे. ३) अपझ-जोइउ भणइ रे जोइहु.
अर्थ-जिस तरह मन विषयोंमें रमण करता है, उस तरह यदि वह आत्माको जानने में रमण करे, तो हे योगिजनो ! योगी कहते हैं कि जीव शीघ्र ही निर्वाण पा जाय ॥ ५० ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org