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________________ -दोहा २१३ ] परमात्मप्रकाशः ३१३ जे बुज्झहिं ये केचन बुध्यन्ते जानन्ति । कम् । परमत्थु रागादिदोषरहितमनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यसहितं च परमार्थशब्दवाच्यं शुद्धात्मानमिति भावार्थः ॥ २१२ ॥ इति सूत्रत्रयेण सप्तममन्तरस्थलं गतम् । एवं सप्तभिरन्तरस्थलैश्चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितं महास्थलं समाप्तम् । अथैकवृत्तेन प्रोत्साहनार्थं पुनरपि फलं दर्शयति जं तत्तं णाण-रूवं परम-मुणि-गणा णिच्च झायंति चित्ते जं तत्तं देह-चत्तं णिवसइ भुवणे सव्व-देहीण देहे । जं तत्तं दिव्व-देहं तिहुवण-गुरुगं सिज्झए संत-जीवे तं तत्तं जस्स सुद्धं फुरइ णिय-मणे पावए सो हि सिद्धिं ॥ २१३ ॥ यत् तत्त्वं ज्ञानरूपं परममुनिगणा नित्यं ध्यायन्ति चित्ते यत् तत्त्वं देहत्यक्तं निवसति भुवने सर्वदेहिनां देहे । यत् तत्त्वं दिव्यदेहं त्रिभुवनगुरुकं सिध्यति शान्तजीवे तत् तत्वं यस्य शुद्धं स्फुरति निजमनसि प्राप्नोति स हि सिद्धिम् ॥ २१३ ॥ पावए सो प्रामोति स हि स्फुटम् । काम् । सिद्धिं मुक्तिम् । यस्य किम् । जस्स णियमणे फुरइ यस्य निजमनसि स्फुरति प्रतिभाति । किं कर्मतापन्नम् । तं तत्तं तत्तत्त्वम् । कथंभूतम् । सुद्धं रागादिरहितम् । पुनरपि कथंभूतं यत् । जं तत्तंणाणरूवं यदात्मतत्त्वं ज्ञानरूपम् । पुनरपि किंविशिष्टं यत् । णिच झायंति नित्यं ध्यायन्ति । क । चित्ते मनसि । के ध्यायन्ति । परममुणिगणा परममुनिसमूहाः । पुनरपि किंविशिष्टं यत् । जं तत्तं देहचत्तं यत्परमात्मतत्त्वं देहत्यक्तं देहाद्भिन्नम् । पुनरपि कथंभूतं यत् । णिवसइ निवसति । क । भुवणे सचदेहीण वे मुझपर कृपा करो, मेरा दोष न लो | यह प्रार्थना योगीन्द्राचार्यने महामुनियोंसे की हैं । जो महामुनि अपने शुद्ध स्वरूपको अच्छी तरह अपनेमें जानते हैं, जो निजस्वरूप रागादि दोष रहित अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्यकर सहित हैं, ऐसे अपने स्वरूपको अपनेमें ही देखते हैं, जानते हैं, और अनुभवते हैं, वे ही इस ग्रन्थके सुननेके योग्य हैं, और सुधारनेके योग्य हैं ॥२१२।। इस प्रकार तीन दोहोंमें सातवाँ अंतरस्थल कहा । इस तरह चौबीस दोहोंका महास्थल पूर्ण हुआ । ___आगे एक स्रग्धरा नामके छंदमें फिर भी इस ग्रन्थके पढनेका फल कहते हैं-तत्] वह [तत्त्वं] निज आत्मतत्त्व [यस्य निजमनसि] जिसके मनमें [स्फुरति] प्रकाशमान हो जाता है, [स हि] वह ही साधु [सिद्धिं प्राप्नोति] सिद्धिको पाता है । कैसा है वह तत्त्व ? जो कि [शुद्धं] रागादि मल रहित है, [ज्ञानरूपं] और ज्ञानरूप है, जिसको [परममुनिगणाः] परममुनीश्वर [नित्यं] सदा [चित्ते ध्यायंति] अपने चित्तमें ध्याते हैं, [यत् तत्त्वं] जो तत्त्व [भुवने] इस लोकमें [सर्वदेहिनां देहे] सब प्राणियोंके शरीरमें [निवसति] मौजूद है, [देहत्यक्तं] और आप देहसे रहित है, [यत् तत्त्वं] जो तत्त्व [दिव्यदेहं] केवलज्ञान और आनंदरूप अनुपम देहको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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