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________________ -दोहा १९२] परमात्मप्रकाशः २९७ शान्तं परमोपशमरूपमिति । इदमत्र तात्पर्यम् । यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मखा तत्साधकवेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परंपरया मोक्षसाधकं भवति, नो चेत् पुण्यबन्धकारणं तमेवेति । निर्विकल्पसमाधिरहिताः सन्तः आत्मरूपं न पश्यन्ति । तथा चोक्तम्-" आनन्दं ब्रह्मणो रूपं निजदेहे व्यवस्थितम् । ध्यानहीना न पश्यन्ति जात्यन्धा इव भास्करम् ॥" ॥ १९१॥ अथ विसय-कसाय वि णिद्दलिवि जे ण समाहि करंति । ते परमप्पहँ जोइया णवि आराहय होंति ॥ १९२ ॥ विषयकषायानपि निर्दल्य ये न समाधिं कुर्वन्ति । __ ते परमात्मनः योगिन् नैव आराधका भवन्ति ।। १९२ ॥ जे ये केचन ण करंति न कुर्वन्ति । कम् । समाहि त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिम् । किं कृता पूर्वम् । णिद्दलिवि निर्मूल्य । कानपि विसयकसाय वि निविषयकषायात् शुद्धात्मतत्त्वात् प्रतिपक्षभूतान् विषयकषायानपि ते णवि आराहय होंति ते नैवाराधका भवन्ति जोइया हे योगिन् । कस्याराधका न भवन्ति । परमप्पहं निर्दोषिपरमात्मन इति । तथाहि । विषयजिसके प्रगट न हुई, तो वह परमसमाधिके बिना तप करता हुआ और श्रुत पढता हुआ भी निर्मल ज्ञान दर्शनरूप तथा इस देहमें विराजमान ऐसे निज परमात्माको नहीं देख सकता, जो आत्मस्वरूप राग द्वेष मोह रहित परमशांत है । परमसमाधिके विना तप और श्रुतसे भी शुद्धात्माको नहीं देख सकता । जो निज शुद्धात्माको उपादेय जानकर ज्ञानका साधक तप करता है, और ज्ञानकी प्राप्तिका उपाय जो जैनशास्त्र उनको पढाता है, तो परम्परा मोक्षका साधक है । और जो आत्माके श्रद्धान बिना कायक्लेशरूप तप ही करे, तथा शब्दरूप ही श्रुत पढे तो मोक्षका कारण नहीं है, पुण्यबंधके कारण होते हैं। ऐसा ही परमानंदस्तोत्रमें कहा है, कि जो निर्विकल्प समाधि रहित जीव हैं, वे आत्मस्वरूपको नहीं देख सकते । ब्रह्मका रूप आनंद है, वह ब्रह्म निज देहमें मौजूद है; परंतु ध्यानसे रहित जीव ब्रह्मको नहीं देख सकते, जैसे जन्मका अन्धा सूर्यको नहीं देख सकता है ॥१९१॥ आगे विषय कषायोंका निषेध करते हैं-[ये] जो [विषयकषायानपि] समाधिको धारणकर विषय कषायोंको [निर्दल्य] मूलसे उखाडकर [समाधिं] तीन गुप्तिरूप परमसमाधिको [न कुर्वति] नहीं धारण करते, [ते] वे [योगिन्] हे योगी, [परमात्माराधकः] परमात्माके आराधक [नैव भवंति] नहीं हैं । भावार्थ-ये विषयकषाय शुद्धात्मतत्वके शत्रु है, जो इनका नाश न करे, वह स्वरूपका आराधक कैसा ? स्वरूपको वही आराधता है, जिसके विषय कषायका प्रसंग न हो, सब दोषोंसे रहित जो निज परमात्मा उसकी आराधनाके घातक विषय कषायके सिवाय दूसरा कोई भी नहीं है । विषय कषायकी निवृत्तिरूप शुद्धात्माकी अनुभूति वह वैराग्यसे ही देखी जाती है । इसलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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