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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १९१शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररहितान् शुद्धात्मद्रव्याद्विपरीतान् शुभाशुभभावान् परिणामान् । कतिसंख्योपेतान् । सयल वि समस्तानपि । अयं भावार्थः । समस्तपरद्रव्याशारहितात् वशुद्धात्मस्वभावाद्विपरीता या आशापीहलोकपरलोकाशा यावत्तिष्ठति मनसि तावद् दुःखी जीव इति ज्ञाखा सर्वपरद्रव्याशारहितशुद्धात्मद्रव्यभावना कर्तव्येति । तथा चोक्तम्-"आसापिसायगहिओ जीवो पावेइ दारुणं दुक्खं । आसा जाहं णियत्ता ताई णियत्ताई सयलदुक्खाई।"॥१९०॥ अथ
घोरु करंतु वि तव-चरणु सयल वि सत्थ मुणंतु । परम-समाहि-विवज्जियउ णवि देवखइ सिउ संतु ।। १९१ ।। घोरं कुर्वन् अपि तपश्चरणं सकलान्यपि शास्त्राणि जानन् ।।
परमसमाधिविवर्जितः नैव पश्यति शिवं शान्तम् ॥ १९१ ॥ करंतु वि कुर्वाणोऽपि । किम् । तवचरणु समस्तपरद्रव्येच्छावर्जितं शुद्धात्मानुभूतिरहितं तपश्चरणम् । कथंभूतम् । घोरु घोरं दुर्धरं वृक्षमूलातापनादिरूपम् । न केवलं तपश्चरणं कुर्वन् । सयल वि सत्थ मुणंतु शास्त्रजनितविकल्पतात्पर्यरहितात् परमात्मस्वरूपात् प्रतिपक्षभूतानि सर्वशास्त्राण्यपि जानन् । इत्थंभूतोऽपि सन् परमसमाहिविवज्जियउ यदि चेद्रागादिविकल्परहितपरमसमाधिविवर्जितो भवति तर्हि णवि देक्खइ न पश्यति । कम् । सिउ शिवं शिवशब्दवाच्यं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं स्वदेहस्थमपि च परमात्मानम् । कथंभूतम् । संतु रागद्वेषमोहरहितलेन जो शुद्धात्मद्रव्य उससे विपरीत जो अच्छे बुरे भाव उन सबको छोड देते हैं, समस्त परद्रव्यकी आशासे रहित जो निज शुद्धात्म स्वभाव उससे विपरीत जो इस लोक परलोककी आशा, वह जब तक मनमें स्थित है, तब तक यह जीव दुःखी है । ऐसा जानकर सब परद्रव्यकी आशासे रहित जो शुद्धात्मद्रव्य उसकी भावना करनी चाहिये । ऐसा ही कथन अन्य जगह भी है-आशारूप पिशाचसे घिरा हुआ यह जीव महान भयंकर दुःख पाता है, जिन मुनियोंने आशा छोडी, उन्होंने सब दुःख दूर किये, क्योंकि दुःखका मूल आशा ही है ।।१९०॥ ___आगे ऐसा कहते हैं, कि परमसमाधिके बिना शुद्ध आत्माको नहीं देख सकता-[घोरं तपश्चरणं कुर्वन् अपि] जो मुनि महा दुर्धर तपश्चरण करता हुआ भी और [सकलानि शास्त्राणि] सब शास्त्रोंको [जानन्] जानता हुआ भी [परमसमाधिविवर्जितः] जो परमसमाधिसे रहित है, वह [शांतं शिवं] शांतरूप शुद्धात्माको [नैव पश्यति] नहीं देख सकता ॥ भावार्थ-तप उसे कहते हैं, कि जिसमें किसी वस्तुकी इच्छा न हो । सो इच्छा का अभाव तो हुआ नहीं परन्तु कायक्लेश करता है, शीतकालमें नदीके तीर पर, ग्रीष्मकालमें पर्वतके शिखरपर, वर्षाकालमें वृक्षके मूलमें महान दुर्धर तप करता है । केवल तप ही नहीं करता, शास्त्र भी पढता है, सकल शास्त्रोंके प्रबंधसे रहित जो निर्विकल्प परमात्मस्वरूप उससे रहित हुआ सीखता है, शास्त्रोंका रहस्य जानता है, परन्तु परमसमाधिसे रहित है, अर्थात् रागादि विकल्पसे रहित समाधि
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