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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १७६परमात्मा । कथंभूतः । देउ परमाराध्यः । पुनरपि कथंभूतः। अणंतु अनन्तसुखादिगुणास्पदत्वादनन्तः। जो हउंसो परमप्पु योऽहं स्वदेहस्थो निश्चयेन परमात्मा स एव तत्सदृश एव मुक्तिगतपरमात्मा । कथंभूतः । परु परमगुणयोगात् पर उत्कृष्टः एहउ भावि इत्थंभूतं परमात्मानं भावय । हे प्रभाकरभट्ट । कथंभूतः सन् । णिभंतु भ्रान्तिरहितः संशयरहितः सन्निति । अत्र स्वदेहेऽपि शुद्धात्मास्तीति निश्चयं कृता मिथ्यावाद्युपशमवशेन केवलज्ञानाद्युत्पत्तिवीजभूतां कारणसमयसारख्यामागमभाषया वीतरागसम्यक्त्वादिरूपां शुद्धात्मैकदेशव्यक्तिं लब्ध्वा सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ॥ १७५ ॥ अथामुमेवार्थ दृष्टान्तदार्टान्ताभ्यां समर्थयति
णिम्मल-फलिहहँ जेम जिय भिण्णउ परकिय-भाउ । अप्प-सहावह तेम मुणि सयलु वि कम्म-सहाउ ॥ १७६ ।। निर्मलस्फटिकाद् यथा जीव भिन्नः परकृतभावः ।
आत्मस्वभावात् तथा मन्यस्व सकलमपि कर्मस्वभावम् ॥ १७६ ॥ भिण्णउ भिन्नो भवति जिय हे जीव जेम यथा । कोऽसौ कर्ता । परकियभाउ जपापुष्पाद्युपाधिरूपः परकृतभावः । कस्मात्सकाशात् । णिम्मलफलिहहं निर्मलस्फटिका तेम तथा भिन्नं मुणि मन्यस्य जानीहि । कम् । सयलु वि कम्मसहाउ समस्तमपि भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मस्वभावम् कस्मात् । सकाशात् । अप्पसहायहं अनन्तज्ञानादिगुणस्वभावात् परमात्मन इति भावार्थः ।। १७६॥ हूँ, तो भी निश्चयनयकर मेरे बंध मोक्ष नहीं है, जैसा भगवान्का स्वरूप है, वैसा ही मेरा स्वरूप है । जो आत्मदेव महामुनियोंकर परम आराधने योग्य है, और अनंत सुख आदि गुणोंका निवास है । इससे यह निश्चय हुआ कि जैसा परमात्मा वैसा यह आत्मा और जैसा यह आत्मा है, वैसा ही परमात्मा है । जो परमात्मा हैं वह मैं हूँ, और जो मैं हूँ वही परमात्मा है । अहं यह शब्द देहमें स्थित आत्माको कहता है । और सः यह शब्द मुक्तिप्राप्त परमात्मामें लगाना । जो परमात्मा है वह मैं हूँ और मैं हूँ सो परमात्मा यह ध्यान हमेशा करना । वह परमात्मा परमगुणके संबंधसे उत्कृष्ट है । श्रीयोगीन्द्राचार्य प्रभाकरभट्टसे कहते हैं, कि हे प्रभाकरभट्ट, तू सब विकल्पोंको छोडकर केवल परमात्माका ध्यान कर । निस्संदेह होकर इस देहमें शुद्धात्मा है, ऐसा निश्चय कर । मिथ्यात्वादि सब विभावोंकी उपशमताके वशसे केवलज्ञानादि उत्पत्तिका जो कारण समयसार (निज आत्मा) उसीकी निरन्तर भावना करनी चाहिये । वीतराग सम्यक्त्वादिरूप शुद्ध आत्माके एकदेश प्रगटपनेको पाकर सब तरहसे ज्ञानकी भावना योग्य है ॥१७५।।
आगे इसी अर्थको दृष्टांत-दाष्र्टातसे पुष्ट करते हैं-जीव] हे जीव; [यथा] जैसे [परकृतभावः] नीचेके सब डंक [निर्मलस्फटिकात्] महा निर्मल स्फटिकमणिसे [भिन्नः] जुदे हैं, [तथा] उसी तरह [आत्मस्वभावात्] आत्मस्वभावसे [सकलमपि] सब [कर्मस्वभावं] शुभाशुभ कर्म [मन्यस्व]
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