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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० २, दोहा १५८अप्पा इत्यादि । अप्पा अयं प्रत्यक्षीभूतः सविकल्प आत्मा परहं ख्यातिपूजालाभप्रभृतिसमस्तमनोरथरूपविकल्पजालरहितस्य विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्य परमात्मनः ण मेलविड न योजितः । किं कृत्खा । मणु मारिवि मिथ्यात्वविषयकषायादिविकल्पसमूहपरिणतं मनो वीत - रागनिर्विकल्पसमाधिशस्त्रेण मारयित्वा सहस त्ति झटिति सो वढ जोएं किं करइ स पुरुषः वत्स योगेन किं करोति । स कः । जासु ण एही सत्ति यस्येदृशी मनोमारणशक्तिर्नास्तीति तात्पर्यम् ।। १५७ ।। अथ- २७० अप्पा मेल्लिव णाणमउ अण्णु जे झायहि झाणु । वढ अण्णाण - वियंभियहँ कउ तहँ केवल-णाणु ॥ १५८ ॥ आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यद् ये ध्यायन्ति ध्यानम् । वत्स अज्ञानविजृम्भितानां कुतः तेषां केवलज्ञानम् ॥ १५८ ॥ अप्पा इत्यादि । अप्पा स्वशुद्धात्मानं मेल्लिवि मुक्त्वा । कथंभूतमात्मानम् । णाणमउ सकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणनिर्वृत्तं अण्णु अन्यद्बहिर्द्रव्यालम्बनं जे ये केचन झायहिं ध्यायन्ति । किम् । झाणु ध्यानं वढ वत्स मित्र अण्णाणवियंभियहं शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणाज्ञान आगे यह कहते हैं, कि जिसने शीघ्र ही मनको वशकर आत्माको परमात्मासे नहीं मिलाया, जिसमें ऐसी शक्ति नहीं हैं, वह योगसे क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता - [ सहसा मनः मारयित्वा ] जिससे शीघ्र ही मनको वशमें करके [आत्मा] यह आत्मा [ परस्य न मेलितः ] परमात्मामें नहीं मिलाया, [ वत्स ] हे शिष्य, [ यस्य ] जिसकी [ ईदृशी ] ऐसी [ शक्तिः ] शक्ति [न] नहीं है, [स] वह [ योगेन ] योगसे [ किं करोति ] क्या कर सकता है ? भावार्थ - यह प्रत्यक्षरूप संसारी जीव विकल्प सहित हैं दशा जिसकी, उसको समस्त विकल्प - जाल रहित निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्मासे नहीं मिलाया । मिथ्यात्व विषय कषायादि विकल्पोंके समूहकर परिणत हुआ जो मन उसको वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप शस्त्रसे शीघ्र ही मारकर आत्माको परमात्मासे नहीं मिलाया, वह योगी योगसे क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता । जिसमें मन मारनेकी शक्ति नहीं है, वह योगी कैसा ? योगी तो उसे कहते हैं, कि जो बडाई पूजा ( अपनी महिमा) और लाभ आदि सब मनोरथरूप विकल्प - जालोंसे रहित निर्मल ज्ञान दर्शनमयी परमात्माको देखे जाने अनुभव करे । सो ऐसा मनके मारे बिना नहीं हो सकता, यह निश्चय जानना ||१५७ || आगे ज्ञानमयी आत्माको छोडकर जो अन्य पदार्थका ध्यान करते हैं, वे अज्ञानी है, उनको केवलज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है, ऐसा निरूपण करते हैं - [ ज्ञानमयं ] जो महा निर्मल केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप [ आत्मानं ] आत्मद्रव्यको [ मुक्त्वा ] छोडकर [ अन्यद् ] जड पदार्थ परद्रव्य उनका [ ये ध्यानं ध्यायंति ] ध्यान लगाते हैं, [ वत्स ] हे वत्स, वे अज्ञानी हैं, [ तेषां अज्ञान-विजृंभितानां] उन शुद्धात्माके ज्ञानसे विमुख कुमति कुश्रुत कुअवधिरूप अज्ञानसे परिणत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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