________________
-दोहा १४३ ] परमात्मप्रकाशः
२५९ भषसायरु वि अणंतु भवः संसारस्य एव समुद्रः सोऽप्यनादिरनन्तश्च । जीविं विणि ण पत्ताई एवमनादिकाले मिथ्याखरागाद्यधीनतया निजशुद्धात्मभावनाच्युतेन जीवेन द्वयं न लब्धम् । द्वयं किम् । जिणु सामिउ सम्मत्तु अनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहितः क्षुषापष्टादशदोषरहितो जिनस्वामी परमाराध्यः । 'सिवसंगम सम्मत् ' इति पाठान्तरे स एव शिवशब्दवाच्यो न चान्यः पुरुषविशेषः, सम्यक्त्वशब्देन तु निश्चयेन शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागसम्यक्त्वम् , व्यवहारेण तु वीतरागसर्वज्ञमणीतसव्व्यादिश्रद्धानरूपं सरागसम्यक्त्वं चेति भावार्थः ॥१४३॥
अथ शुद्धात्मसंवित्तिसाधकतपश्चरणमतिपक्षभूतं गृहवासं दूषयतिये दो [न प्राप्ते] नहीं पाये ॥ भावार्थ-काल, जीव और संसार ये तीनों अनादि हैं, उसमें अनादिकालसे भटकते हुए इस जीवने मिथ्यात्व-रागादिकके वश होकर अपना शुद्धात्मस्वरूप न देखा, न जाना । यह संसारी जीव अनादिकालसे आत्मज्ञानकी भावनासे रहित है; इस जीवने स्वर्ग नरक राज्यादि सब पाये, परन्तु ये दो वस्तुयें न मिलीं, एक तो सम्यग्दर्शन न पाया, दूसरे श्रीजिनराजस्वामी न पाये । यह जीव अनादिका मिथ्यादृष्टि है, और क्षुद्र देवोंका उपासक है । श्रीजिनराज भगवानकी भक्ति इसके कभी नहीं हुई, अन्य देवोंका उपासक हुआ सम्यग्दर्शन नहीं हुआ । यहाँ कोई प्रश्न करे, कि अनादिका मिथ्यादृष्टि होनेसे सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हुआ, यह तो ठीक है, परन्तु जिनराजस्वामी न पाये, ऐसा नहीं हो सकता ? क्योंकि “भवि भवि जिण पुजिउ वंदिउ" ऐसा शास्त्रका वचन है, अर्थात् भव भवमें इस जीवने जिनवर पूजे और गुरु वन्दे । परन्तु तुम कहते हो, कि इस जीवने भव-वनमें भ्रमते जिनराजस्वामी नहीं पाये, उसका समाधान-जो भाव-भक्ति इसके कभी न हुई, भाव-भक्ति तो सम्यग्दृष्टिके ही होती है और बाह्यलौकिक भक्ति इसके संसारके प्रयोजनके लिये हुई वह गिनतीमें नहीं । ऊपरकी सब बातें निःसार (थोथी) है, भाव ही कारण होते है, सो भाव-भक्ति मिथ्यादृष्टिके नहीं होती । ज्ञानी जीव ही जिनराजके दास है, सो सम्यक्त्व विना भाव-भक्तिके अभावसे जिनस्वामी नहीं पाये, इसमें सन्देह नहीं है । यदि जिनवरस्वामीको पाते, तो उसीके समान होते, ऊपरी लोग-दिखावारूप भक्ति हुई, तो किस कामकी ? यह जानना । अब श्रीजिनदेवका और सम्यग्दर्शनका स्वरूप सुनो । अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय सहित और क्षुधादि अठारह दोष रहित है वे जिनस्वामी है, वे ही परम आराधने योग्य हैं, तथा शुद्धात्मज्ञानरूप निश्चयसम्यक्त्व (वीतराग सम्यक्त्व) अथवा वीतराग सर्वज्ञदेवके उपदेशे हुए षट् द्रव्य, सात तत्व, नौ पदार्थ, और पाँच अस्तिकाय उनका श्रद्धानरूप सराग सम्यक्त्व यह निश्चय व्यवहार दो प्रकारका सम्यक्त्व है । निश्चयका नाम वीतराग है, व्यवहारका नाम सराग है । एक तो चौथे पदका यह अर्थ है, और दूसरे ऐसा “सिवसंगमु सम्मत्तु" । इसका अर्थ ऐसा है, कि शिव जो जिनेन्द्रदेव उनका संगम अर्थात् भाव-सेवन इस जीवको नहीं हुआ, और सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हुआ । सम्यक्त्व होवे तो परमात्माका भी परिचय होवे ॥१४३॥
आगे शुद्धात्मज्ञानका साधक जो तपश्चरण उसके शत्रुरूप गृहवासको दोष देते है-[जीव] हे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org